Madan Upadhyay  
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Joined 14 May 2018


Joined 14 May 2018
13 AUG 2020 AT 22:18

"अफ़वाह"
(कैप्शन में पढ़िए एक लघुकथा)

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25 JUL 2020 AT 22:36

सट्टा (कहानी)
-कैप्शन में पढ़िए

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22 MAY 2019 AT 20:43

तपती दुपहरी में जब इक काली-सी बदली घिर आए।
सूखे लबों पर तब हल्की सी लहर खिंच जाए।

और महीनों की ऊष्मा सहकर सावन की पुरवैया जब
मुख से टकराए तो मानों बिन पंखों के उड़-उड़ जाएं।

तब सूखे डंठल जो किंचित सा रस लिए अकड़े- से खड़े थे कल,
आज सम्पूर्ण धरा पर जैसे जान लुटाए।

रूखे दिनों से अलसाकर जब प्रकृति करवट बदले
तब पावस अपना रंग दिखाए।

शुष्क धरा की उखड़ी साँसे तब फिर से भर-भर गगरी
रस ढुलकाए।

मरघट में तब जीवन फूटे और जरा जीवन में यौवन लहराए।

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16 SEP 2018 AT 11:53

प्रगति
एक तरुण झुका है सड़क के किनारे, फुटपाथ के सहारे।
कभी दौड़ता,कभी रुकता,कभी देखे अम्बर, कभी धरा निहारे।

वह बतियाता है खुद से, देश की प्रगति पर बहस नहीं कर पाता।
हाथ आये सिक्के गिनता तो है वह, पर शून्य से मुक्ति नहीं पाता।

इस देश में हजारों सालों से जीवित है वह, शायद अमरता पा गया।
कब वैदिक युग बीता, कब मौर्य, गुप्त, मुगल और कब लोकतंत्र आ गया।

कुछ लोग वर्तमान कमा रहे और पेंशन पर चिंतित है।
वह अतीत में जी रहा है और वर्तमान से विचलित है।

कुछ लोग अरबों का कर्जा  लेकर सियासत के सहारे डकार गए।
वह उद्विग्न सा विनम्रता से झुका रहा और लोग उसके अस्तित्व को नकार गए।

कोई स्वर्ण तो कोई हवाई यात्रा पर लगे कर से मुक्ति पा गया।
वह तरुण सदैव स्नेह से वंचित रहा, जीते जी नरक पा गया।

उभरते भारत में वेतन आयोग पर हल्ला और पे-मैट्रिक्स पर बवाल है।
पर देश के हर चौराहे पर खड़ा यह तरुण देश की आर्थिक नीति पर सबसे बड़ा सवाल है।


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10 AUG 2018 AT 19:43

जुबाँ पर ताले लाख लगा दो।
सपनों को कैसे बाँध सकोगे।

हाँ जीवन को तो बाँध लिया तुमने।
बोलो साँसों को कैसे बाँध सकोगे।

माना तन पर इख्तियार है पूरा।
पर मन को कैसे बाँध सकोगे।

अहसानों को गिरवी रख कर शब्दों को तो बाँध लिया।
देखें प्रेम को अब कैसे बाँध सकोगे।

मेरी हर बात पर एतराज रहा तुम्हें।
पर अस्तित्व को मेरे क्या बाँध सकोगे।

तेरे हर एक शब्द पर समर्पित हूँ मेरे सृजक।
क्या मुझे मेरे जीवन से बाँध सकोगे?

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17 JUL 2018 AT 21:02

तुम लग रहे हो किंचित से चिंतित।
अपने पथ से हो रहे जैसे कुछ विचलित।

क्यों नहीं जानते तुम अपना आकर्षण, रहस्य, महत्ता।
धैर्य को  त्याग कर, झूठ को ही न सच मान  सहसा।

व्यर्थ ही नत ना होने दे खुद को किसी के सम्मुख।
सर्वस्व भले ही लुट जाए, स्वाभिमान रहे प्रमुख।

बारिश हो या बवंडर बेवजह पेड़ से नीड़ हुए मुक्त।
नीड़ज ने पल भर न परवाह की, उड़ान भरी उन्मुक्त।

तुम अनमोल हो किसी के लिए, यूँ व्यर्थ न जानो खुद।
जीवन है तो है संघर्ष भी, तुम भी लड़ो स्वयं के विरुद्ध।

जीवटता कसौटी है मानव होने की, बढाता चल हरदम।
मिटा दे मार्ग के अवरोध सारे,सार्थक कर दे तूं हर कदम।

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8 JUL 2018 AT 18:05

मंजिल बदले या पथ बदलेंगे।
अतृप्त काफिलों को संतोष कहाँ,
हर कदम पर वे अपनी फ़ितरत बदलेंगे।

सन्नाटों की गुज़र सम्भव नहीं ज़रा भी।
रहनुमाओं को आम का आकिबात मालूम है यहाँ,
चिल्लाहटों से हर चेहरे पर निशां बदलेंगे।

बेमज़ा हो गए घाव भी बदन पर उनके।
गम के साये में जब से नासूर पाक हो गए,
आशियां न रहा जिनका वे अब ठिकाने हरदम बदलेंगे।

आतिश को फ़िक्र कहाँ मज़लूमों की।
जलाने के सिवा रहगुज़र नहीं उसका कोई,
फ़ुर्सत में हैं हम भी, हाल-ए-दिल आज नहीं तो कल बदलेंगे।

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1 JUL 2018 AT 14:06

"उलझन"
(अनुशीर्षक में पढ़ें)

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28 JUN 2018 AT 14:33

"एक अकेली लड़की"

वह सोचती, विचारती, अपने मस्तिष्क को झकझोरती।
अपनी पुरानी यादों को तोड़ती, कभी मरोड़ती।
वह कुछ बातों के अर्थ बदलती, झूठ की चादर ओढ़ती।

वह अकेले में रोती, खुद को पुचकारती।
कभी खुद को दिलासा देती, कभी ताने मारती।
वह झूठ को सच मानती, कभी सच को सच स्वीकारती।

उसे समय खलता, कभी समय की कमी नहीं खलती।
वह कभी स्वयं से शिकायत करती, कभी हाथ मलती।
वह शांत लगती बिल्कुल, पर भीतर से प्रतिपल जलती।

वह महफ़िल में चुप रहती, खामोशियों से बात करती।
वह नीरवता की ओर दौड़ती, रुकने की न बात करती।
वह सुकून से घृणा करती, बेचैनियों से मुलाकात करती।
न जाने कौन चाहता उसे, जाने वह किससे प्रेम दिन-रात करती।

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26 JUN 2018 AT 16:30

तुम्हारा आना जैसे बारिश का आना।
 सूखे खेतों का फिर से लहलहाना।
 मिट्टी की सौंधी महक का हवा में घुल जाना।
टूटे ख्वाबों को जैसे पर लग जाना।

तुम्हारा आना जैसे मधुमास का आना।
मृत रगों में फिर से लहू दौड़ जाना।
नीरस टहनी में नई कोंपलों का फूट जाना।
बियाबान में जैसे भँवरों का गुनगुनाना।

तुम्हारा आना जैसे सर्द रात में अलाव जलाना।
काँपते बदन को ऊष्मा का मिल जाना।
जमते अरमानों का फिर से पिघल जाना।
ठिठुरते विश्वासों का जैसे स्थिर हो जाना।

तुम्हारा आना जैसे तिमिर का आभा हो जाना।
समस्त शंकाओं का स्वतः हल हो जाना।
जैसे व्याकुल की आकुलता का मिट जाना।
पिंजरे के पंछी को जैसे नभ मिल जाना।

तुम्हारा आना जैसे मीन को जल मिल जाना।
पथ भ्रमित को मंजिल का पता लग जाना।
तुम्हारा आना जैसे वीराने में बस्ती मिल जाना।
तुम्हारा आना जैसे शून्य से संपूर्ण हो जाना।

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