"एक अकेली लड़की"
वह सोचती, विचारती, अपने मस्तिष्क को झकझोरती।
अपनी पुरानी यादों को तोड़ती, कभी मरोड़ती।
वह कुछ बातों के अर्थ बदलती, झूठ की चादर ओढ़ती।
वह अकेले में रोती, खुद को पुचकारती।
कभी खुद को दिलासा देती, कभी ताने मारती।
वह झूठ को सच मानती, कभी सच को सच स्वीकारती।
उसे समय खलता, कभी समय की कमी नहीं खलती।
वह कभी स्वयं से शिकायत करती, कभी हाथ मलती।
वह शांत लगती बिल्कुल, पर भीतर से प्रतिपल जलती।
वह महफ़िल में चुप रहती, खामोशियों से बात करती।
वह नीरवता की ओर दौड़ती, रुकने की न बात करती।
वह सुकून से घृणा करती, बेचैनियों से मुलाकात करती।
न जाने कौन चाहता उसे, जाने वह किससे प्रेम दिन-रात करती।
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