पीड़ाओं की सीमा
अंतर्मन के ऊपरी छोर तक ही सीमित रह जाती है
इस छोर को पार करना कठिन है
लेकिन संभवतः इसके उपरांत
अंतर्निहित अस्तित्व विलीन हो जाता है
निर्गुणता में और रह जाता है
एक अंधकार मात्र जो बोध कराता है
असीमित प्रकाश का-
स्वच्छंदता, वर्तमान समय में
केवल एक सामाजिक भ्रम है
जिसका स्रोत आत्मिक ना होकर
भौतिकवाद से प्रेरित है
जिस कारण विभिन्न द्वन्दों का पैदा होना स्वाभाविक हो जाता है
आत्मिक स्वच्छंदता का श्रेय समाज को नहीं
स्वयं द्वारा किए गये आत्मबोध को जाता है
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वर्तमान जीवन शैली के अन्तर्गत
चेतना का मृत्यु से पहले ही मृत हो जाना स्वाभाविक है
भौतिक शोधों की तीव्रता व आधुनिकता
के प्रभाव की जड़ें जीवन को खोखला
व पतन की ओर अग्रसर करने में पूर्णतः समर्थ है
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"लेकिन इतनी कम आयु से ही आध्यात्म का मार्ग! क्यों?"
"यदि अंतर्मन में जीवन के उद्देश्य और मृत्यु के सत्य को जानने की जिज्ञासा व उत्सुकता के भाव उत्पन्न नहीं होते
तो व्यर्थ है मनुष्य होना
और इसी जिज्ञासा पर निरंतर कार्यशील रहना ही
इस मार्ग को परिभाषित करता है"-
वियोग की पराकाष्ठा से उत्पन्न हुई
उत्पीड़न की एक ऐसी स्थिति
जो झिंझोड़ कर रख दे अंतर्मन तक को
उन क्षणों में प्रतीत होता है मानो रुक गया हो समय का चक्र
और पूरी श्रृष्टि की रचना समाहित होती हुई दिखाई देती है
एक शून्य मात्र में
उस एक क्षण में सबसे अधिक क्षमता होती है
आत्मशक्ति को इतना प्रबल बनाने की कि
अस्तित्व का सार स्पष्ट रूप से दिखाई दे सके-
"इस प्रकार की विचारधारा के रहते भविष्य में
एक गृहस्थ जीवन किस प्रकार व्यतीत कर पाओगी, तुम्हारे लिए यह कठिन हो सकता है!"
"आध्यात्मिक होना एकाकीपन नहीं है
और ना ही अपनी विचारधारा को किसी अन्य पर थोपना है
सामाजिक उत्तरदायित्वों का निर्वाह करते हुए भी
इस मार्ग को सरल तथा सफल बनाया जा सकता है
केवल आवश्यकता है तमस् का त्याग करने की"
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मैंने सालों से अपने अंदर एक द्वंद्व को पनपते देखा है
एक गहन मौन के उपरांत अंतर्मन का कराहता शोर
वेदनाओं को परत दर परत चीरते हुए
उसकी धरातल से टकराकर गूंजता हुआ
आकार ले लेता है एक ऐसी स्मृति का
जिसकी जलती हुई राख से प्राप्त की थी मैंने आत्मशुद्धि
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किसी भी अन्य जीव से भिन्न होकर
केवल मनुष्य को ही यह स्वतंत्रता प्राप्त है कि
वह स्वयं की प्रवृति को बदलकर मनवांछित रूप में ढल सकता है
इस प्रवृत्ति के अनुरूप वह किसी भी लक्ष्य तक
पहुँचने में पूर्ण रूप से सक्षम है
फिर भी अधिकांश व्यक्ति प्रवाह के साथ बहना ही चुनते हैं
और दृढ़ता व एकाग्रता को अनदेखा कर
उद्देश्यहीन जीवन के पथ पर चलते चले जाते है
जिसका अंत निरर्थकता से परिपूर्ण अन्य जीव के समान ही है
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हाँ मैं मृत्यु की चाह रखती हूँ
लेकिन इसे आत्महत्या का नाम देना सर्वथा अनुचित है
आत्महत्या को जीवन की वेदनाओं से मुक्ति का मार्ग समझा जाता है
वास्तव में यह केवल कायरता और दुर्बलता का प्रतीक है
जो जीवन के असीमित मोह की
नकारात्मकता से ग्रसित मनुष्य द्वारा चुना जाता है
इसके पूर्णतः विपरीत मेरी मृत्यु को खोजने की चाह
जीवन की समस्त पीड़ा और मोह भोगकर
मृत्यु के मूल स्वरूप को अपने समक्ष अनुभूत करने की है
बिना अचेत हुए, जिसमें स्वयं की चेतना का त्याग ना हो
जिसका आधार भौतिकी पर समाप्त होकर
आत्मिक रूप ले लेता है
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जीवन की भौतिकता का सटीक अनुमान
उस एक क्षण में लगाया जा सकता है
जब किसी संबंधित जीवित शरीर की सजीवता
अपनी आँखों के समक्ष निर्जीवता में परिवर्तित हो जाती है
उस क्षण में इस देह का निर्गुण होना
स्पष्ट रूप से दिखाई देता है और
भावों का गुबार सिकुड़कर केंद्रित हो जाता है एक बिंदु में
जिसका भार पूरी पृथ्वी के भार के समान प्रतीत होता है
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