माणिक्य बहुगुना   (माणिक्य बहुगुणा)
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Joined 6 September 2017


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Joined 6 September 2017

ताउम्र वो कुछ सिक्कों में मरता रहा ,
जो रंग मिले तो बेवक्त बदलता रहा ।

अपने बख्त की रोटियां खा ना सका,
वो शिकायत ये किस्मत से करता रहा ।

अरमानों में तुम हसीं थी, मैं खुशनशी,
अपने ही सपनों का सफर मैं चलता रहा।

'मणि' दिन की रौशनी में भी अकेला रहा,
जब रात आई तो, चांदनी से भी डरता रहा।

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जो पत्थर ना मिले तो इवादात करूं,
जो हीरा मिले बेकद्री करूं ।

घर की ताज़ी रोटियों से बू आती है,
बंद अन्न को यूं खाकर आफ़त करूं।

ना जाने क्या पोत कर गिरगिट बने,
क्यों तन के रंग ए नजाकत में इतना मरूं।

मिट्टी की बस्तियां मिट्टी में मिला डाली,
यूं कंक्रीट के जंगलों में योगी बनूं ।

मणि पुस्तकों पर विश्वास बहुत है तुझे,
चलना हो रास्तों में तो हरकत करूं ।

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प्रेम विवाह का मोहताज नहीं होता,
महज़ बन्धनों की घुटन बड़ी बेदर्द होती है ।

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शिकायतों का दौर अब चल रहा है,
तिल-तिल जी कर भी मर रहा है ।

गुरेज़ करूँ अब किस से, इश्क़ से,
सपना रंगत का दिल में क्यों पल रहा है ।

वक्त है, वक्त के साथ गुजर जाएगा,
दिल फिर अपना ही दिन-रात क्यों जल रहा है ।

'मणि' रूप से कर लिया है मोह जमाने ने,
रूप तुम्हारा दिन-ब-दिन क्यों घट रहा है ।

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अपना कौन, पराया कौन दिखता है,
इस दुनियाँ में इंसान भी बेमोल बिकता है ।

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स्त्रियाँ भांप लेती हैं,
कब जरूरत है, कब चाहत,
पुरुष भेद नहीं कर पाता,
बस जरूरत को चाहत समझ बैठता है ।

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जो अजीज होते हैं और छोड़ जाते हैं,
जिंदगी जीने का मकसद भी वो दे जाते हैं ।

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तुम थी,
मैं था,
हमारे दरम्यान फ़ासले थे ।
बातें थी,
सपने थे,
दूरियाँ थी दिल की ।

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प्यार बार-बार थोड़ी होता है ।
गर हो तो प्यार थोड़ी होता है ।

हँसते चेहरे से प्यार भरी बात कर ली,
ये बातें,मुलाकातें इश्क़ का पैमाना थोड़ी होता है ।

गलतियाँ होती हैं हर किसी से मरते दम तक,
हर बार हम ही गलत हों, ऐसा थोड़ी होता है ।

उनके दिल में अभी भी कोई और रहता है,
वो हम को ही नसीहत दें, ऐसे थोड़ी होता है ।

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तन को चाहा,
तन को माना,
तन को ही तो प्यार किया,
ये तन तो रैन बसेरा ।

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