कहीं मैं थक ना जाऊं "माही" रोज़ रोज़ सिखवे भी किस्से करू...
बेहाल सा मेरा हाल छिपती फिरती हूं पर क्या करू..
उदासी मुझे ढूंढ़ लेती है पता है मुझे रह जाऊंगी कभी इन्हीं तन्हाइयों में मगर फिर भी हर पल हर लम्हा वो सुकून वो चैन खयालों से बना नई कायनात और उफ्फ वो ख़्वाबों की जुस्तजू होती हैं
पर क्या करू...
मैं खुद को ही आईना दिखा जाती हूं
है ,अब तो सिर्फ काबिल बनने की चाहत
जिंदगी पर क्या करू ......?
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