उसे किस नज़र से देखूँ जो गुनाह अधूरे हैं
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ज़ख़्म क्यूँ तुझको लगे सोचा यही था तबसे
बात ऐसी थी कि हर बात छिपा ली मैंने
लोकेश सिंह
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जिन से हम छूट गए अब वो जहाँ कैसे हैं
शाख़-ए-गुल कैसी है ख़ुश्बू के मकाँ कैसे हैं
ऐ सबा तू तो उधर ही से गुज़रती होगी
उस गली में मिरे पैरों के निशाँ कैसे हैं
पत्थरों वाले वो इंसान वो बेहिस दर-ओ-बाम
वो मकीं कैसे हैं शीशे के मकाँ कैसे हैं
कहीं शबनम के शगूफ़े कहीं अंगारों के फूल
आ के देखो मिरी यादों के जहाँ कैसे हैं
कोई ज़ंजीर नहीं लायक़-ए-इज़हार-ए-जुनूँ
अब वो ज़िंदानी-ए-अंदाज़-ए-बयाँ कैसे हैं
ले के घर से जो निकलते थे जुनूँ की मशअल
इस ज़माने में वो साहब-नज़राँ कैसे हैं
याद जिन की हमें जीने भी न देगी 'राही'
दुश्मन-ए-जाँ वो मसीहा-नफ़साँ कैसे हैं
राही मासूम रज़ा
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हर रोज बेच खुद को कमाने में रह गया
सांसो का मैं किराया चुकाने में रह गया
मुझसे बिछड़ गये मिरे अपने यहाँ बहुत
ताउम्र मैं सभी को भुलाने में रह गया
इक आग सी लगी रही सीने में और मैं
अपने लहू से आग बुझाने में रह गया
कोई नहीं मिरा यहाँ ये जानता था मैं
फिर क्या था जो सभी से निभाने में रह गया
कटती रही बदन से मिरे मिट्टी रात दिन
मैं भी बदन की मिट्टी उठाने में रह गया
दौलत ये दर्द की मैं लुटा भी नहीं सका
जितना भी दर्द था वो ख़जाने में रह गया
इक धुंधली सी याद को वीरान मेरा दिल
आँखों की उँगलियों से सजाने में रह गया
तू क्यूँ थका थका सा "तरब" आज लग रहा
तू क्यू बदन से बाहर ज़माने में रह गया
लोकेश सिंह
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मेरी बेगुनाही का ये बयान रहने दो
ज़ख़्म गर दिया तुमने फिर निशान रहने दो
लोकेश सिंह
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मैं जिसकी चाह में कई सदियाँ गुजार दूं
इक पल न उसको याद मिरी आए तो क्या करूं
लोकेश सिंह
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किसी ने हाथ छुड़ाया था अपने हाथों से
सभी से हाथ छुड़ाते हुए ये उम्र कटी
लोकेश सिंह "तरब"
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पत्थर जिसे कहते थे सब लोग ज़माने में
कल रात न जाने क्यूँ, रोया तो बहुत रोया
रईस अंसारी
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जाने वालों को कहाँ रोक सका है कोई
तुम चले हो तो कोई रोकने वाला भी नहीं
असलम अंसारी
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ले आया हूँ मैं जग की वीरानी को
मेरे अंदर शोर उभरने वाला है
लोकेश सिंह
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