तन्हाई को गले लगाऊँ, कभी-कभी लगता है।
भीड़ में गुम हो जाऊँ, कभी-कभी लगता है।
ज़ोर-ज़ोर से क़हक़हे लगाकर,दुनिया को जगा दूँ।
ग़म की चादर तले सुला दूँ, , कभी-कभी लगता है।
किसी के काँधे सर रखकर, दिल की दास्ताँ सुनाऊँ।
दिल के सारे राज़ दफ़न कर जाऊँ, कभी-कभी लगता है।
लहू से स्याही के रंग को लहूलुहान कर जाऊँ,
लहू को स्याही की दो बूँद पिलाऊँ, कभी-कभी लगता है।
झूठ को कहीं दफ़न कर दूँ इस ख़ाक में,
सच्चाई को मिलने न दूँ राख में, कभी-कभी लगता है।
ग़रीबों की आवाज़ को फ़लक की दीवार से टकराउं,
अमीरों का गुरुर मिट्टी में मिलाऊँ, कभी-कभी लगता है।
सारे ख़्वाब जो देखे हैं, हक़ीक़त से रु-ब-रु कराऊँ,
हक़ीक़त भूल ख़्वाबों में खो जाऊँ,कभी-कभी लगता है।
हक़ीक़त भूल ख़्वाबों में खो जाऊँ,कभी-कभी लगता है।— % &
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