सुनो...
जबतक तुम मेरे हाथों की ऊँगलियों के बीच की दरारें अपनी ऊँगलियों से भरने नहीं आते,
तबतक मैं यूँ ही हर रात उनमें अपने दूसरे हाथ की ऊँगलियाँ डाल कर आँखें मींच कर तुम्हें दुआ में अपने हक़ में माँगती रहूँगी,
और कहीं उम्र भर का इंतज़ार रहा तो जिस ख़ुदा से माँगती हूँ जानती हूँ कि वो बाहर नहीं,
तो ख़ुद को मोहब्बत मान लूँगी!
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