अशराफ़ उलेमाओं ने भी ख़ुद को नबी (स.अ.) से जोड़ कर झूठी हदीसें गढ़ीं और साथ ही उन्होंने हदीस और कुरान के बीच का फर्क मिटा दिया ताकि इन झूठी हदीसों पर कोई सवाल न कर सके। यह भी ज्ञात रहे कि हदीसों का संकलन नबी (स.अ.) की वफ़ात के 100 साल बाद शुरू हुआ है। यह वही वक़्त था जब सत्ता के लिए शिया और सुन्नीयों के बीच जंग हो रही थी। सत्ता की दावेदारी को सही साबित करने का सबसे आसान तरीका क्या होता है? वह यह कि आप किसी तरह अपनी सत्ता को ईश्वर का आदेश साबित कर दें। राजनीतिक विज्ञान में इसे ‘राज्य की दैवीय उत्पत्ति का सिद्धांत’ के रूप में हम पढ़ते हैं। राज्य ईश्वर ने बनाया इसलिए राजा ईश्वर का दूत है, ‘ज़िल्ले इलाही’ है। कोई भी उसकी सत्ता के विरुद्ध विद्रोह नहीं कर सकता। बस यही होड़ उस वक़्त भी मची हुई थी। सुन्नी सत्ता को कुरैश तक सीमित रख रहे थे और शिया सत्ता को अली (र.अ.) की ख़ानदान तक। अगर यह साबित कर दिया जाए कि नबी (स.अ.) ने किसी ख़ास ख़ानदान या क़बीले को सत्ता सौंपी थी तो उसकी दावेदारी ईश्वरीय हो जाएगी क्योंकि नबी (स.अ.) ईश्वर के दूत थे। अब कोई भी आम मुसलमान हदीस का नाम सुन कर शांत हो जाएगा और नहीं पूछेगा कि कैसे तुमने इस्लाम के बुनियादी उसूल ‘मसावात’ (समानता) के ख़िलाफ़ हदीस गढ़ दी? जो इस्लाम कहता है कि “इस्लाम मे कोई वंश परम्परा नहीं है!”वहां तुमने वंश परंपरा को मज़बूत कैसे कर दिया?
~लेनिन मौदूदी— % &-
क्या हिटलर ने होलोकॉस्ट सत्ता में आते ही शुरू कर दिया था? कोई भी जनसंहार फ़ौरन शुरू नहीं होता, उस के लिए माहौल बनाया जाता है. हम ने यह रवांडा और टुल्सा जनसंहार में भी देखा था. यहूदियों का जनसंहार भी फ़ौरन शुरू नहीं हुआ था. इस जनसंहार की भूमिका कई दशकों से तैयार हो रही थी. हिटलर ने बस उसे अमली जामा पहनाया था. हिटलर ने किस तरह होलोकास्ट को अंजाम दिया इसको समझने का सबसे अच्छा तरीका यह कि होलोकॉस्ट शुरू होने से पहले बनाए गए तमाम एंटी-सेमेटिक क़ानूनों को देखा जाए. अध्यन करने पर आप पाते हैं कि हिटलर ने बड़े सिलसिलेवार ढंग से यहूदियों के मुकम्मल दमन के इरादे को अंजाम दिया. 1933 से लेकर 1943 तक कई कानून लाए गए जिसमें मुख्य रूप से यहूदियों को सरकारी नौकरी करने, मेडिसिन, फार्मेसी और कानून की पढ़ाई करने और फ़ौज में भाग लेने पर प्रतिबन्ध लगा दिया गया. न्यूरेमबर्ग क़ानून (Nuremberg Laws) जो कि 1935 में आया इसके तहत यहूदियों से वोट का अधिकार छीन लिया गया. नागरिक क़ानून (Citizenship Laws) के अंतर्गत जर्मनी का नागरिक कहलाने का हक उसी को था जिसकी रगों में जर्मन ख़ून हो. जर्मन नागरिकों और यहूदियों के बीच शादियों को अवैध घोषित कर दिया गया. विदेशों में भी यदि कोई ऐसी शादी करे तो वो भी अवैध. यहाँ तक कि जर्मन नागरिकों और यहूदियों के शारीरिक सम्बन्ध भी पूरी तरह गैर-कानूनी घोषित कर दिए गए.
~लेनिन मौदूदी-
इतिहासकार मुबारक़ अली अपनी किताब 'अलमिया-ए-तारीख़' में लिखते हैं कि, "सर सैयद से बहुत पहले ही मुस्लिम (अशराफ़) वर्ग में अंग्रेज़ी शिक्षा ग्रहण करने वाला वर्ग पैदा हो चुका था और मुस्लिम छात्र सरकार (अंग्रेज़ों) द्वारा बनाए गए स्कूलों में अंग्रेज़ी शिक्षा हासिल कर रहे थे। इस लिए सर सैयद द्वारा बनाया गया मोहम्मडन एंग्लो-ओरिएंटल कॉलेज अपने शुरुआती दिनों में मुसलामनों (अशराफ़) की शिक्षा पर कोई ख़ास प्रभाव नहीं डाल सका। उदाहरण के लिए 1882 से 1902 तक एम. ए. ओ. कॉलेज से 220 मुसलमान स्नातक निकले वहीं इलाहाबाद विश्वविद्यालय से इसी दौरान 420 मुसलमान स्नातक निकले। इस लिए यह कहना कि सर सैयद का विरोध उन के अंग्रेज़ी पढ़ाने की वजह से हुआ, सरासर झूठ है बल्कि यह विरोध उन के धार्मिक नज़रिये की वजह से था। मुस्लिम सामंत और संभ्रांत वर्ग अंग्रेज़ी शिक्षा हासिल कर ही रहा था और कम्पनी के शुरुआती दौर से ही मुसलमान उलेमा तक अंग्रेज़ी नौकरियों में आ चुके थे। (अलमिया-ए-तारीख़ पेज नम्बर 147)"
~लेनिन मौदूदी
Reference: {Paul R. Brass, Languge Religion and
Politics in North India, Cambridge 1974,
Page no. 165-166}-
सर सैयद कि नज़र में ‘क़ौम’ की जो संकल्पना या धारणा थी उस में पसमांदा (पिछड़े) मुसलमान शामिल नहीं थे और न ही वह आधुनिक शिक्षा का लाभ पसमांदा समाज को देना चाहते थे। और यह कहानी भी पूरी तरह सच नहीं है कि सर सैयद वह पहले इंसान हैं जिन की वजह से मुस्लिम (वास्तव में संभ्रांत वर्ग) के बीच अंग्रेज़ी भाषा फैली है।...पाकिस्तानी इतिहासकार मुबारक अली लिखते हैं कि 'सर सैयद जब लफ़्ज़ 'मुसलमान' का इस्तेमाल करते हैं तो उन का तात्पर्य मुसलमानों के इसी विशेष वर्ग से है, सभी मुसलमानों नहीं क्योंकि अंग्रेज़ों के शासन के स्थायित्व तथा 1857 की घटना ने मुस्लिम जागीरदार और ज़मींदार तबक़े को बुरी तरह प्रभावित किया था। सर सैयद ने इस संभ्रांत वर्ग का प्रतिनिधित्व किया और उन के नेतृत्व में इस तबक़े का झुंड का झुण्ड शामिल होता चला गया। खुद सर सैयद का संबंध मुग़ल उमरा के ख़ानदान से था और उन्होंने जिस घराने और जिस माहौल में तालीम-ओ-तरबियत पाई वह भी (अशराफ़)संभ्रांत वर्ग तक सीमित था। इसी वजह से उन की सोच,
उन का नज़रिया, उन की मानसिकता इसी (अशराफ़) संभ्रांत वर्ग की
मानसिकता की अक्कासी होती है। सर सैयद एक विशेष(अशराफ़)
सामंती मानसिकता रखते थे और उस से हट कर न तो वह सोच
सकते थ और न ही देख सकते थे।
(अलमिया-ए-तारीख़ ,पेज नंबर 151)"
~लेनिन मौदूदी-
सर सैयद के आस-पास एक आभा मंडल गढ़ा गया
झूठे-सच्चे क़िस्से गढ़े गए और उस के पक्ष में,
उन की महानता बताते हुए किताबें लिखी गईं।
उन की शान में गाने-कविताएं-ग़ज़लें लिखी गईं,
(मौजूदा दौर में) सोशल मिडिया पर पेज बनाए
गए उनकी डीपी लगाई गई। अक़ीदत की एक
पूरी संस्कृति विकसित की गई ताकि हर विरोधी
स्वर को दबा दिया जाए और सर सैयद का कोई
भी विरोध ईशनिंदा ही समझा जाए। सिर्फ़ सर
सैयद ही नहीं बल्कि किसी भी व्यक्ति को महत्मा
बनाने का यही तरीक़ा होता है।
~लेनिन मौदूदी-
आप अलीगढ़ के किसी पसमांदा छात्र से भी तर्क करने की कोशिश करेंगे तो वह वही तर्क और तथय आप के सामने रखेगा जो दशकों से अशराफ बुद्धिजीवी रखते आ रहे हैं। उनके सारे तर्क एक अशराफ़ (सवर्ण) मुस्लिम द्वारा गढ़े गए तर्क होते हैं जो संदर्भ से कटे तथा भ्रामक होते हैं। स्टीव बिको ने कहा सच ही कहा था कि, “शोषकों के हाथ में सब से कारगर हथियार शोषितों का दिमाग होता है। (The most potent weapon in the hands of the oppressor is the mind of the oppressed.) पसमांदा मुसलमानों के दिमाग़ को इसी तरह से क़ाबू में कर लिया गया है कि वह अपने शोषक से ही मोहब्बत करने लगे हैं। यह बस यूँ ही नहीं हुआ बल्कि इसे बड़े ही सुनियोजित तरीक़े से अंजाम दिया गया है। सर सैयद के मामले में यह काम ‘अलीगढ़ ओल्ड बॉयज़ एसोसिएशन’ के अशराफ़ लड़कों
ने किया। सर सैयद की महानता को स्थापित करने मे ‘सर सैयद डे’ को
एक टूल की तरह इस्तेमाल किया गया। इसमे शक नहीं कि भारत में
मुसलमानों की पहली पढ़ी-लिखी पीढ़ी इन्हीं अशराफ़ लड़कों की रही
है। यह जहां भी गए वहां सर सैयद की महात्मा वाली छवि बनाई।
~लेनिन मौदूदी-
भारतीय मीडिया 273 न्यूज चैनलों और 82000 अखबारों के साथ तकरीबन 70-80 हजार करोड़ का उद्योग है। लेकिन विश्व रैंकिंग में इसका स्थान 130 के ऊपर (अफगानिस्तान से भी बदतर) है तो सवाल उठता है कि उसकी ऐसी दुर्दशा क्यों है? जब आप गौर से भारतीय मीडिया की पड़ताल करेंगे तो पाएंगे कि वह अब ख़ुद बाज़ार है। वह उन वर्चस्व की शक्तियों के साथ खड़ा है या यूँ कहें, उन का ही हिस्सा है, जिन के ख़िलाफ़ इस चौथे खंबे को खड़ा होना था। भारतीय मीडिया ने अपना पक्ष चुन लिया है। भारतीय मीडिया लगातार बहुसंख्यकों के दिल में नफ़रत भर रहा है।भारत मे घटित किसी भी समस्या में ‘मुसलमान’ एंगल खोजना इनकी विशेषता बन चुकी है।
सरकार के विरुद्ध हर विरोध प्रदर्शन को ‘देशद्रोही’ करार दे दिया जाता है ताकि बहुसंख्यक हिंदुओं को यह समझाया जा सके कि जो विरोध हो रहा है वह विदेशी पैसों से हो रहा है। लोगों को विरोध के मूल कारणों तक पहुंचने नहीं दिया जाता है। उससे पहले ही पूरे विरोध को हिन्दू-मुसलमान बना दिया जाता है। इसका परिणाम भी दिख रहा है, पसमांदा मुसलमानों के पिटाई के वीडियो सामने आ रहे हैं। जगह-जगह तनाव बढ़ रहा है। मुसलमानों के प्रति अविश्वास अपने चरम पर है।टी.वी. डिबेट में कोई मुस्लिम पहचान पर एंकर चिल्लाता है गर्जता है। जिसे देख कर दर्शकों की कुंठाएं शांत होती है और गुस्सा बढ़ता है साथ ही एंकर की TRP बढ़ती है।
~लेनिन मौदूदी-
भारतीय मीडिया 273 न्यूज चैनलों और 82000 अखबारों के साथ तकरीबन 70-80 हजार करोड़ का उद्योग है। लेकिन विश्व रैंकिंग में इसका स्थान 140 के ऊपर हैतो सवाल उठता है कि उसकी ऐसी दुर्दशा क्यों है? जब आप गौर से भारतीय मीडिया की पड़ताल करेंगे तो पाएंगे कि वह अब ख़ुद बाज़ार है। वह उन वर्चस्व की शक्तियों के साथ खड़ा है या यूँ कहें, उन का ही हिस्सा है, जिन के ख़िलाफ़ इस चौथे खंबे को खड़ा होना था ।भारतीय मीडिया ने अपना पक्ष चुन लिया है। मीडिया द्वारा सरकार के विरुद्ध हर विरोध प्रदर्शन को ‘देशद्रोही’ करार दे दिया जाता है ताकि बहुसंख्यक हिंदुओं को यह समझाया जा सके कि जो विरोध हो रहा है वह विदेशी पैसों से हो रहा है। लोगों को विरोध के मूल कारणों तक पहुंचने नहीं दिया जाता है। उससे पहले ही पूरे विरोध को हिन्दू-मुसलमान बना दिया जाता है।
इसका परिणाम भी दिख रहा है, पसमांदा मुसलमानों की पीटाई के वीडियो सामने आ रही हैं। जगह-जगह तनाव बढ़ रहा है। मुसलमानों के प्रति अविश्वास अपने चरम पर है। टी.वी. डिबेट में कोई मुस्लिम पहचान का व्यक्ति बैठा होता है जिसे एंकर पूरे मुस्लिम समाज का प्रतिनिधि के रूप में पेश करता है। फिर एंकर उसपर चिल्लाता है गर्जता है। जिसे देख कर दर्शकों की कुंठाएं शांत होती है और एंकर की TRP बढ़ती है। अब दर्शक भी ऐसे मुसलमानों की खोज में रहते हैं जिन पर वह चीख सकें चिल्ला सकें।
~लेनिन मौदूदी-
आप को हत्यारा बनाने के लिए आपकी कौन सी पहचान को ज़्यादा महत्व देना है, इसका निर्धारण आप नही करते! यह धार्मिक, राजनीति, सामाजिक सत्ता में बैठे हुए लोग तय करते हैं। उदाहरण के रूप में समझें, हिन्दू-मुसलमान के संघर्ष में मैं मुसलमान बन जाता हूं फिर मुसलमानों के अंदर सुन्नी जो शिया से अलग हैं, फिर सुन्नी के अंदर हनफ़ी जो अहले हदीस (वहाबियों) से अलग हैं, फिर हनफ़ी के अंदर अहले सुन्नत वल जमात (बरेलवी) जो देवबंदियों से अलग हैं। इन श्रेणियों का निर्माण संघर्ष से पहले होता है। आपको किसी ख़ास सांचे में डाल दिया जाता है और बताया जाता है कि आप ही सही हैं दूसरा पूरी तरह गलत। इस श्रेणीक्रम के निर्माण के बाद यह ज़रूरी हो जाता है कि व्यक्ति को उस के लिए तय की गई श्रेणी में रहने को मजबूर किया जाए। समुदायों की लेबलिंग की जाती है। उनको अमानवीय घोषित किया जाता है। फिर उनको हाशिए पर ढकेलने की कोशिश होती है। अमर्त्य सेन अपनी किताब ‘Identity and Violence’ में लिखते हैं –
”हम अपने आपको किस रूप में देखें! अपनी व्यक्तिगत पचानों को व्यक्त करने की हमारी स्वतंत्रता कई दफ़ा इसी तथ्य पर निर्भर करती है कि दूसरे हमें किस रूप में देखते हैं। कई दफ़ा तो हम यह भी नही जान पाते कि दूसरे हमें किस रूप में देखते हैं और वह अपने बारे में हमारे स्वयं के दृष्टिकोण से कितना भिन्न है।”
~लेनिन मौदूदी
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पसमांदा आंदोलन आरक्षण पाने की लड़ाई नहीं है। अशराफ़ साथी इसे आरक्षण से जोड़ कर सीमित करना चाहते हैं। यह आंदोलन सामाजिक-सांस्कृतिक, धार्मिक-राजनीतिक एवं आर्थिक होने के साथ-साथ कला एवं साहित्य में भी अपने अस्तित्व की लड़ाई है। इस बात को समझें कि निष्पक्ष कुछ नहीं होता है। हर व्यक्ति, हर संस्था तथा संगठन का एक पक्ष होता है। पूंजीवादी व्यवस्था में पूंजीपतियों का पक्ष समाज पर शासित होता है, पितृसत्तात्मक व्यवस्था में मर्दों का पक्ष समाज पर शासन करता है तथा जातिवादी व्यवस्था में सवर्ण-अशराफ़ों का पक्ष सही माना जाता है और उसी के अनुसार व्यवस्था बनती है। हम यह भी देखते हैं कि कैसे नारीवाद और साम्यवाद अपने वर्गीय हितों की लड़ाई के रूप में शुरू हुए थे और आज उन की उपस्थिति समाज से लेकर राजनीति तक और अर्थव्यवस्था से ले कर साहित्य तक हर जगह मौजूद है। आप को साम्यवादी तथा नारीवादी कवि-शायर, लेखक, पेंटर, समाजशास्त्री, अर्थशास्त्री, राजनीतिज्ञ तथा इतिहासकार आदि मिल जाएंगे। नारीवाद और साम्यवाद की तरह पसमांदा आंदोलन भी एक दृष्टिकोण पैदा करने की कोशिश कर रहा है जिस से आप समाज के हर पक्ष को उस के चश्मे से देख सकें और उसमें मौजूद पसमांदा पक्ष को समझ सकें।
~लेनिन मौदूदी-