मिट्टी...
तेरी खुशबु...एहसास है अपनेपन का
मिट्टी...तेरी रंगत...ऐलान है विभिन्न जीवन का
तेरे सीने पर बोझ...अपरिमेय
तु जननी, तु अन्नदात्री
विभिन्न रंगो से सजि तु,
तेरी छटा अपरिभासित
मिट्टी... तु पुजनीय...तु आश्रयदात्रि
तु ना हो तो कोई रह पाएगा कैसे?
वजूद हमारा तुझसे
तेरा कर्ज कोई चुकाएगा कैसे?
हम कपूत, जब तुझे रक्तरंजित कर जाते हैं
तु उन रक्तों का भी बोझ लिए जाने कैसे रह पाती है
मिट्टी...कैसे तु...
कैसे तु अपने आँसुओ को पी जाती है...
मिट्टी...तु निर्मल सी और निराकार
भोली बिलकुल, ना कोई अहंकार
कैसे गीली होकर, चढ् कर हमारे साँचों पर,
हमारे मनस्वरूप ढल जाती है...
मिट्टी...तु कभी गुड्डा-गुड़िया तो कभी भोजन की थाल बन जाती है
कभी चढ़कर तिनको के सांचो पर ईश्वरीय स्वरूप को दिखाती है...
मिट्टी...तु तो गुणकारी...तु औसधि भी बन जाती है
मिट्टी तु पंचतत्व को पूरा करती
तु ही तो है माॅ धरती
तुझसे दूर कहाँ जाना है
एक दिन थक हार कर इस शरीर को
तुझमें ही तो खो जाना है...
मिट्टी....
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