सवाल ही सवाल बस
क्यों मन में यों उमड़ रहे
यह हाल भी बेहाल हो
क्यों हरपल हैं बिगड़ रहे
जान सभी इन बातों को
क्यों नहीं निकलता मर्ज़
है कुछ तो अपने अंदर ही
क्यों बात यह न होती दर्ज
पूछो तो ज़रा ख़ुद से भी
क्यों भटकता है बाहर ही
एक बार तो देख ख़ुद में
ख़ुदा बैठा अपने अंदर ही
छिपा वो यों मोतियों सा
बस कभी सागर सा बिखरो
फिर खोजने को उसे कहीं
इस मन की गहराई में उतरो-
क्यों नहीं लौट जाती नदी उन पर्वतों की ओर
क्यों भा गया है अब उसे इन शहरों का शोर
क्यों छोड़कर वो अजियाली पर्वतों की भोर
क्यों अपनाने को है आतुर वो अंधियारा घोर
क्यों भला बांध कर ख़ुद को सभी बंधनों में
क्यों बाँट रही है सबको वो पराये अपनों में
क्यों ना पाकर आख़िर चैन कहीं इन वनों में
क्यों आ जा रही है वो अब इन शहर घनों में
क्यों मिलने की चाह सागर में है इतनी बड़ी
क्यों न ठहर जाती है वो नदी बस एक घड़ी
क्यों मिल कर वो औरों से है झंझटों में पड़ी
क्यों जोड़ते है चलती वो कहानियों की कड़ी
क्यों करना चाहती है भला वो सागर की होड़
क्यों नहीं लेकर रस्ता फिर अपने घर को मोड़
क्यों अपनाकर फिर छिपा अपने मन का चोर
क्यों नहीं लौट जाती नदी उन पर्वतों की ओर-
फिर लेकर वो अरमान कई
और पाकर एक पहचान नई
कहीं ले आए मन को बाहर
जो ना जाने कहाँ गया है खो
कहीं फिर से अब उसे ढूँढके
बस जल जाए ये प्यार की लौ
फिर ले वो बन्दगी का सहारा
करदे हर बात को ही किनारा
और लेके मोती वो उस संग से
देदे कहीं दिल के धागे में पिरौ
फेर के माला फिर उन सब की
बस जल जाए ये प्यार की लौ
और लेकर एक अटूट विश्वास
हो जाए सारा जीवन ही खास
तब पा वो एक साथ अनोखा
देदे कहीं इन आँखों को भिगो
फिर उसी एक उम्मीद से सही
बस जल जाए ये प्यार की लौ-
आईना बोला मुझसे
चल भाई अब बहुत हुआ
न कर और जी हुजूरी
पड़कर सबके चक्कर में
न छोड़ जो है जरूरी
न छोड़ जो तेरा है यहां
जिसको तू है यहां आया
वो जो है तुझमें बसता
जो है तेरे भीतर समाया
कहीं कुछ है गहरा सा
अंतर्मन के एक छोर पर
जिसके सिवा न मंजिल है
न ही है तेरा कोई और घर
बस देख तू खुद को मुझमें
पहचान जरा की तू है कौन
और बस अब कह दे वो सब
न रह अब जरा सा भी मौन-
मिलकर जब मौके कई दफा भी
मैं रहते रहा बस सब तमाशा देख
और खोजकर भी कितना ही पर
न मिल पाया उन अनेकों में एक
तब हुआ सवाल यह मन से अपने
क्यों न मिला वो एक इस जहान में
न जाने क्या चूक हुई है अब तक
मुझसे इस इश्क़ के इम्तिहान में
ऐसे देखूँ तो कहीं सच में ही मुझे
जब जो जैसा चाह वैसा ही मिला
और देखो कहाँ मैं फिर भी सबको
दिला पाया मोहब्बत का सही सिला
तो सोचा हुई भूल पहचान में उनकी
या सही में कहीं अपनी पहचान में
पर न समझा तो भी क्या चूक हुई
मुझसे इस इश्क़ के इम्तिहान में
कहीं आया समझ फिर देखकर
की कमी रही तो कहीं अपने में ही
और शायद इस इश्क़ के संग संग
मेरी ढेरों उम्मीदों के पनपने में ही
वो जो न कभी करके खुद में पूरी
हमेशा तराशी कहीं दूसरे इंसान में
तब आया समझ फिर की मुझसे
क्या चूक हुई इश्क़ के इम्तिहान में-
जैसे पाकर साथ मैं तेरा
ठहर गया हूँ हरदम को
और एक मुस्कान ने तेरी
यों भुला दिया हरगम को
अब नहीं देखना कुछ भी
फिर कहीं भी घूम घूमकर
बस लुटा दूँ प्यार सारा मैं
तुम्हारे माथे को चूमकर
खो गया था जो मैं कभी
वो तुम्ही से फिर पा लिया
और जो गीत था भूल चुका
वो दिल ने फिर से गा लिया
फिर थिरकने लगा ये मन भी
खुशी से कहीं झूम झूमकर
बस लुटा दूँ प्यार सारा मैं
तुम्हारे माथे को चूमकर
अब न सोचकर आगे का मैं
आज का कुछ भी खराब करूँ
और संग रहने का खुद में ही
मैं अपने यह सुंदर ख्वाब भरूँ
फिर समझ जाऊं तुम्हें हर तरह
हर बात को तुम्हारी मालूम कर
तब बस लुटा दूँ प्यार सारा मैं
तुम्हारे इस माथे को चूमकर-
रहकर बेड़ियों में काटों की
दे देता जो एक महक गहरी
और सहेज हरेक पंखुड़ी को
की रहती संग में सब ठहरी
कुछ ऐसे ही ठहरा देता वो
दो लोगों के बीच का प्यार
और हर रंगों में दिला देता
वो एक दिल को दिलदार
कभी बनकर दो लोगों के
प्यार का एक सुंदर गवाह
कभी कर देता दोनों में ही
पनपते गुस्से को ही तवाह
सच अलग नहीं इसका भी
कहीं महादेव सा जहर पीना
और सबको प्रेम का अमृत दे
उन गुलाबों की तरह जीना-
जैसे बैठा हो घबराकर
कहीं भीतर किसी कोने में
और डर लगता हो उसे जैसे
कहीं फिर खुद को खोने में
वो हो चुका यों बेजान सा
कुछ आधा सा कुछ जिंदा
बस अब उड़ना भूल चुका
मानो यह दिल का परिंदा
वो पंख मिले थे उसे कभी
भरने को कोई ऊंची उड़ान
और उससे ही अब है डरता
कहीं भूलके अपनी पहचान
पर कभी हो पहचान उसे तो
हो शायद इस भूल पे शर्मिंदा
बस अब उड़ना भूल चुका
मानो यह दिल का परिंदा
और लगता है मिले फिर
वही पहचान जो खो चुकी
और बह चले हवाओं संग
जो हो गई थी रुकी रुकी
की फिर हरा हर बातों को
वो जीत ले लोगों की निंदा
बस फिर अब उड़ चले यह
उड़ान पर दिल का परिंदा-
कभी मिले हम साथ
तो जुड़े हाथों में हाथ
और चल पड़ा सफर
सीखने जीने का ढंग
तुम्हारी यादों के संग
कैसे सब हुआ सरल
शांत हुई हर हलचल
और उजड़े पड़े मन में
हुई खुशियों की उमंग
तुम्हारी यादों के संग
फिर हवा कुछ बदली
जैसे हो उल्टी ही चली
और उड़ गयी फिर यों
छूटकर हाथों से पतंग
तुम्हारी यादों के संग
रह गया परिंदा सा ये
मरा कुछ जिंदा सा ये
और उड़ता उसी ओर
हो ये जिंदगी से बेरंग
तुम्हारी यादों के संग-
जवाब है कुछ किस्सों का
छूट गए हैं जो पीछे कहीं
उन अनसुलझे हिस्सों का
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