बाहें फैला सुबह की आभा स्वागत करती जन जन का ओस की बूंदे ताजा कर गई कण कण में समा तर कर गई मन हरित देख धरा सुशोभित खिला फूल दिखता हर्षित चंचल चाहत जागृत हो और जीवन गति असीमित जब लोहित की पुरवाई छू कर जाती यह तन मन शोभित अलौकिक प्रकृति को मेरा शत शत नमन।
गमों को चुराते दोस्त हँसी के ठहाके दोस्त जाने कितनी ही खुबियों संग उमंग भर जाते दोस्त बिना आस बिना प्यास फर्ज़ निभा जाते दोस्त तू मेरा मैं तेरा मन दुनियां के बेसहारों के सहारे बन जाते दोस्त आंखें बंद सामने दोस्त कैसा सम्बंध न जाने दोस्त।
एक दिन मन में भरी उमंग जीवन में भरलूॅं सब रंग बाँहों को फैला कर देखा ज्यों ही आसमान की ओर मुस्कुराहट फैली होठों पर पाया हो जैसे मैंने सारा जहां हो मेरे संग।
तालाब बीच एक मृणाल खिला खिला सा दिख रहा। खूबसूरती के मंज़र को चारों ओर बिखेर रहा। पंखुड़ियों पर पानी की रिमझिम बूंद को रख रहा। आकर्षित वो अपनी ओर हर एक को कर रहा।
चिरैया बैठी नीड में बहुत उदासी छाई। कैसे चहके बाहर आ सांझ ढलन को आई। उड़ उड़ जाए सूखे पत्ते जोर चली पुरवाई। दिन और रात की मिलन बेला में गगन लालिमा छाई।
पता नहीं चला यह मन कल्पना में भटककर कब दूर का सफ़र तय कर गया कुछ चाहतों को महसूस कर रिश्तों को झोली में भरता चला गया कुदरत की सोची समझी डोर में मन अक्सर बंध सा जाता अचानक कोई मन को पढ़ता हुआ दिल के दर तक आ जाता।