जाने कब तक मैं आंख मूंदे लेटा रहा
ख्वाबों के उजाले में तेरा अक्स तकता रहा
इसी एक ख्वाब में जाने कब
शाम ढल गई रात हो गई
फिर हुआ कुछ यूं कि जैसे
किसी हवा ने मुझे गुदगुदाया हो
किसी खुशबू ने मुझे घेरा हो
और उस खुशबू को छूने की
राह में धीरे से
मैंने लब रख दिए तेरी तस्वीर पे
फिर एक अजब सी कोमलता पहनी मेरे होंठों ने
एक अजब सी नरमी छाई मेरे चेहरे पे
आंखें खुली तो दीवारों पर तेरे साए थे
कोई धुंधला सा पैरहन ओढ़े
कहीं गुम गई तू मेरी आंखों में
अब इनसे कैसा शिकवा जो सिर्फ तेरी हैं
तेरे लिए आहें भरती हैं तेरी राहें तकती हैं
मैं फिर ढूंढुंगा तुझे इन में ही कहीं
तुझे शिकवा होगा तो लौटाउंगा तुझे तेरा अक्स बावजू
मगर एक आरजू रहेगी हर दफा मेरे सीने में
तुझे महसूस करना चाहूंगा मैं फ़जाओं में हवाओं में सहराओं में
तेरी वो खुशबू जो मुझ में बची होगी मेरे लबों पे ठहरी होगी
मैं उसको महफूज रखूंगा मौजों में कशिश में सांसो में तमन्नाओं में
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