कवि मुकेश कुमार  
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Shayar
Joined 9 September 2019


Shayar
Joined 9 September 2019

मोहब्बत में दोनों ने एक साथ मांगी थी एक दुआ
" कभी हमारे बीच कुछ भी न आयेगा"
मगर बदकिस्मती ने व्याकरण का यह खेल खेला कि सचमुच
"हमारे बीच कुछ भी नहीं रहा"।

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ये जो इन आंखों में सागर नजर आता है
कभी अहले दिल कभी मैकश नजर आता है


कितना भी छुपाओ मगर उल्फत जमाने से
चेहरे पे दिल का ज़रर‌ बखूबी नजर आता है

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ये आंखें मुन्तजिर हैं सर ए राह एक ऐसी रात के मानिंद
जिस रात की कभी सहर नहीं होनी फलक चांद सितारों

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वफ़ा पसंद पत्थर कलेजे पे रखे
कमज़र्फ फूल फेंक दिए हमने
इन आंखों की तरफ न देखो
लोग उतार के फेंक दिए हमने
फकत एक जुबां की खातिर
सारे ख़्वाब फेंक दिए हमने
कौड़ियां खरीदी थीं हीरों के दाम
वो हीरे कचड़े में फेंक दिए हमने

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तड़पते हुए अरमां दिल के पल पल निकले
यहां कुछ दरियादिल इतने दल दल निकले

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अब सफर में वो आंखें जिस बेरंगी से देखती हैं शजर को
लगता है कोई ताब कोई चमक खा गई तरबियत इनकी

फूलों के शजर ने अपनी शाखें मरोड़ी थी जुनून ए इश्क में
कहां गए वो रंग जिनसे सजाई थी शजर ने तरबियत इनकी

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वो एक सागर जो बहता कभी बेखौफ इरादों से  
कब हार गया चन्द पतवारों से  

जो कहता था खुद को आतिश मुकेश
क्या बुझ गया सर्द बौछारों से  

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मौसम मिजाज लोगों हमसे दूर रहो
हमने फिर वीरानियों के दुख नहीं सहने

हम इसलिए भी बहुत अजीब हैं कि
हमने चेहरे नू कभी मुखौटे नही पहने

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तेरा चेहरा मेरी आंखें तेरी आंखें मेरा चेहरा

इससे हसीं मंजर हयात में बाकी नहीं कहीं

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दिलनशीं तेरे बगैर तो मुझको गुलशन में भी वीरानी दिखती हैं
तेरी मोहब्बत गर साथ हो तो मैं कांटों को भी हमसफर चुन लूं

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