कवि मुकेश कुमार  
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Shayar
Joined 9 September 2019


Shayar
Joined 9 September 2019

मुझमें गुजारे हर लम्हे का अब शुकराना कहने आता है
जा तो वो कब का चुका बस शब-बख़ैर कहने आता है

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कौन कहे है लौटा नहीं करे हैं वापस मौसम बचपन के
मैंने इश्क औ बेहिसी में लोगों को बच्चा बनते देखा है

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ये जो सुरत ए बदन है! इसने तो आफ़त तारी है
ये हुस्न ओ इश्क़ भी यार क्या अजब बीमारी है

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ये क्या हुआ कि उस दरवाजे तक पहुंचते ही पलटने लगे कदम हमारे
जहां किसी दस्तक ओ तलब ए दीदार को कब से मुंतजिर थीं ये आंखें

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तुझे तक कर दिन बना ....ख्वाबों में जागे रात भर
यह किस तरह का मरना... आंखों को नींद नहीं आंख भर

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यदा कदा जो तू मेरे पास से गुजरे
होश को यूं लगे रोज ए हश्र से गुजरे

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जो उतरे अगर किसी रोज मैदान में
हम झटके में शाहों का भरम तोड़ देंगे

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वक्त की खताओं से,मिटते हुए ख्वाबों से और टूटते हुए अल्फाजों से
वह लिबास ए ज़हन मोहब्बत ही नहीं जो बुना हो मोम के धागों से

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जाने कब तक मैं आंख मूंदे लेटा रहा
ख्वाबों के उजाले में तेरा अक्स तकता रहा
इसी एक ख्वाब में जाने कब
शाम ढल गई रात हो गई
फिर हुआ कुछ यूं कि जैसे
किसी हवा ने मुझे गुदगुदाया हो
किसी खुशबू ने मुझे घेरा हो
और उस खुशबू को छूने की
राह में धीरे से
मैंने लब रख दिए तेरी तस्वीर पे
फिर एक अजब सी कोमलता पहनी मेरे होंठों ने
एक अजब सी नरमी छाई मेरे चेहरे पे
आंखें खुली तो दीवारों पर तेरे साए थे
कोई धुंधला सा पैरहन ओढ़े
कहीं गुम गई तू मेरी आंखों में
अब इनसे कैसा शिकवा जो सिर्फ तेरी हैं
तेरे लिए आहें भरती हैं तेरी राहें तकती हैं
मैं फिर ढूंढुंगा तुझे इन में ही कहीं
तुझे शिकवा होगा तो लौटाउंगा तुझे तेरा अक्स बावजू
मगर एक आरजू रहेगी हर दफा मेरे सीने में
तुझे महसूस करना चाहूंगा मैं फ़जाओं में हवाओं में सहराओं में
तेरी वो खुशबू जो मुझ में बची होगी मेरे लबों पे ठहरी होगी
मैं उसको महफूज रखूंगा मौजों में कशिश में सांसो में तमन्नाओं में

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