कवि अजय अनोखा चित्रकार   (कवि अजय अनोखा चित्रकार)
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Writer, Artist, Teacher
Joined 22 June 2018


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Joined 22 June 2018

कभी डुबोता, कभी लगाता पार।

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मुसाफ़िर दुनिया हो चली अब छल की जेल
हर पीठ के पीछे आज खेले हर कोई खेल।

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एक पहले है ये मन,
क्यों रहते इसके बस में
हम जन।

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ज़िंदगी को मिल गया है आशिक़ी का फ़लसफ़ा,
मुसव्विर के मुसलसल अश्कों से गल गया है सफ़ा।

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सपनों की लहर में खेल रहे हैं
हम असल ज़िन्दगी में न जाने
क्या क्या झेल रहे हैं।

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If I were to be a star,
I would break every day and
fulfill the wishes of others.

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ए ज़िन्दगी तेरे लिए
हमने वक़्त को अपना
रक़ीब बना लिया।

दिनाँक: 4 मई 2025

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देखिए दुनिया को गौर से
कभी इस ओर से, कभी उस ओर से।

दिनाँक: 4 मई 2025

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गुमनामी में जीते हैं, हम अब भी
एक अधूरी कहानी में जीते हैं।

दिनाँक: 4 मई 2025

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सतरंगी सपने हैं, ज़िंदगी बेरंग है
आज हर अपना हमसे, न जाने
क्यों तंग है।

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