अब ऐसा नहीं है की तुम्हारी याद नही आती है,
इक तस्वीर महफूज़ रखी है तुम्हारी,
मगर वो तस्वीर अब मेरे हाथ नही आती है...
गौर करु तो उस तस्वीर का पता एक दराज मालूम पड़ता है...
मगर उस दराज की चाबी कहां रखी है...याद नही आती है...
रोज की उलझने मुझे चंद मिनटों में घेर लेती है,
वो तस्वीर, दराज और चाबी मुझसे मुंह फेर लेती है,
कभी कोई रसीद या फाइल की तलाश में,
वो नाराज़ चाबी मुझसे मिल जाती है,
मगर क्यू संभाली है अब तक, यह बात याद नहीं आती है...
फिर किसी थकी शाम को,
नींद इस बोझिल मन को,
रात से पहले जब अपने पास बुलाती है,
ज़बान पर जिक्र होकर,
यही बात ख्वाब बन जाती है,
की अब ऐसा नहीं की तुम्हारी याद नहीं आती है...
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