वो ग़ज़ल पढने में लगता भी ग़ज़ल जैसा था,
सिर्फ़ ग़ज़लें नहीं, लहजा भी ग़ज़ल जैसा था।
वक़्त ने चेहरे को बख़्शी हैं ख़राशें वरना,
कुछ दिनों पहले ये चेहरा भी ग़ज़ल जैसा था।
तुमसे बिछडा तो पसन्द आ गयी बेतरतीबी,
इससे पहले मेरा कमरा भी ग़ज़ल जैसा था।
कोई मौसम भी बिछड कर हमें अच्छा ना लगा,
वैसे पानी का बरसना भी ग़ज़ल जैसा था।
नीम का पेड था, बरसात भी और झूला था,
गांव में गुज़रा ज़माना भी ग़ज़ल जैसा था।
वो भी क्या दिन थे तेरे पांव की आहट सुन कर,
दिल का सीने में धडकना भी ग़ज़ल जैसा था।
इक ग़ज़ल देखती रहती थी दरीचे से मुझे,
सोचता हूं, वो ज़माना भी ग़ज़ल जैसा था।
कुछ तबीयत भी ग़ज़ल कहने पे आमादा थी,
कुछ तेरा फ़ूट के रोना भी ग़ज़ल जैसा था।
मेरा बचपन था, मेरा घर था, खिलौने थे मेरे,
सर पे मां-बाप का साया भी ग़ज़ल जैसा था।
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