कुछ खत पुराने पढ़कर, आज फ़िर तबीयत नासाज़ सी है,
कंबख़्त कैसा जहर था वो, जो अब भी मरने नहीं देता;
मेरे हक में करता था दुआ कभी, अब कोई बात भी मुश्किल है,
उसकी आँखें याद हैं अब भी, वो मुझे अब भी जीने नहीं देता;
झूठ कहता है दुनिया से हर वक्त क्यों 'कुनाल, नजरें मिलाता है जब आईने से, 'वो' तुझे अब भी रोने क्यों नहीं देता ;
इतनी समझदारी कहाँ जाएगा लेकर,
वो तेरे बाहर का इंसाँ अब भी तुझे हँसने क्यों नहीं देता;
पढ़ने वालों को लगती है मेरी हर शायरी अधूरी,
तू ही बता, तू मुझे अपनी कोई ग़ज़ल पूरी करने, क्यों नहीं देता...
कंबख़्त कैसा जहर था वो, जो अब भी मरने नहीं देता...
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