तुम्हें शब्दों में बयां करूँ, वो मुमकिन नहीं...
कह भी ना सकूँगा कोई शब्द
सिवाय एहसास के...!
तुम प्रत्यक्ष रहो या दूर
हमेशा करीब पाता हूँ तुम्हें...
उन एहसासों को,उन जज्बातों को
कैसे ढालूँ शब्दों में...
जो बह रहा है साँसों में...
जाने क्यों देख तुम्हें
भीग जाती हैं पलके मेरी..
समझ नहीं पाता हूँ,यह खुशी के आँसू हैं...या जुदाई का गम ..
जाने किस जन्म का प्रसाद हो
मेरी मन्नतों में मिले थे
तुम्हारे आने से जिंदगी,खूबसूरत लगने लगी थी ..
ज़िंदगी की मुश्किलें
सरल लगने लगी थी ...
यूँ ही मुस्कुराते रहना..!!❣️
यूँ खामोशी से निहारना और मुस्कुरा देना
पूछो तो सिर हिला देना
यूँ खामोशी से बयाँ करना
बिना कोई शब्दों के
बहुत कुछ जता जाती थी .
जीवन की मुश्किलें..
तुम्हारे आगोश में सिमट
सब भूल जाता था और तुम्हें कितना करीब पाता था ..
उन्हें शब्दों में कैसे बयाँ करूँ...
गुनगुना सकूँ तुम्हें गीतों में
वो राग भरना है
जीवन में नही रहा अब कुछ शेष,
तुन संग जीवन विशेष...!!❣️
#स्वरचित ✍️-
एक आश है एक प्रयास है,
अधीनता में जीता हर व्यक्ति निराश है
फिर कोई कैसे खुशियों की तलाश करे,
कोई कैसे स्वाधीनता कि बात करे l
चहूँ ओर बिखरी केवल बेबसी है,
बस करते दिन-रात बंदगी हैं,
वास्तव में बड़ी कश्मकश में ये जिंदगी है l-
चाहकर टूटना या टूटकर चाहना दो लफ्ज़ में समाहित सारी परिभाषाएं हैं,
मेरा सबकुछ बोल जाना और उसका मौन रहना
फिर भी क्यों उससे आशाएं हैं?
सही है सबकुछ या उलझ रही है ज़िन्दगी कहीं
क्यों! लेती ज़िन्दगी हर बार मुझसे परीक्षाएँ हैं
प्रेम के सागर में गोते लगाता फिर भी दिल का गागर खाली रह जाता
मन की असीमित इच्छाओं से, कुछ निराशाओं वाली पीड़ाओं से,
रूह की कसकती ये बेज़ान जान मायूस रहना चाहता है,
अब बस मन ये शांत रहना चाहता है और दिल ये एकान्त रहना चाहता है ll-
तेरी हर मुस्तकबिल से वाकिफ हूँ मैं,
ना जाने मैं आजकल किस दुनिया में जी रहा l
ये ज़िन्दगी जीने का सलीका तूने सिखाया मुझे
या तेरी किरणों से मैं प्रज्वलित हो रहा ll
तेरी शरारतें, तेरा हक़ जताना
कभी गुस्सा होना,कभी मनाना,
यूँ हर बार देख तेरा मुस्कुराना
काश! ये लम्हा बस ऐसे ठहर जाये
हमारी दोस्ती कुछ और निखर जाये
तेरी ज़िन्दगी यूँ हीं हमेशा खुशमिज़ाज़ रहे
कितनी भी मुश्किलें आए,बस तेरी ज़िन्दगी हमेशा आबाद रहे l
-Sujeet Gupta
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अहम् पद का हो या पैसों का,
ये रिश्ते को रास्ते पर ला हीं देता है l-
एक कहानी मेरी जुबानी
जब से मैंने होश संभाला, तूने घर की है एक ईंट को पाला
उस होटल में ग्राहकों के बीच पढता, पिता की आँखों में था आशाओं का उजाला l
सुबह से लेकर शाम तक ग्राहक का इंतजार करता,
महाजन के पैसे देने को शाम को एक-एक पाई जोड़ता l
कैसे भूलूँ वो बचपन जब पन्ने भरने को रुपैया मिलता था,
एक रुपए पाकर मैं खुशियों से खिल उठता था l
वो टूटी झोपड़ी हीं सही मगर कितनी खुशहाली थी,
सब मिल-जुलकर एक साथ थे रहते मानो हर रोज दिवाली थी l
मैंने देखा, मैंने सुना कि कैसे तूने हमें आबाद किया,
हमारी सलामती और कामयाबी के खातिर, ना जाने कितना कुछ है त्याग किया l
भूल गए वो लोग जिनके लिए तू भूखी पेट सोती थी,
ज़रा सी इक आह पर उसकी,तू फूट-फुटकर रोती थी l
राशन बचाये,एक वक़्त की रोटी छोड़ी जिसे कामयाबी दिलाने को,
भूल गया वो सब, जीवन में आगे बढ़ जाने को l
जितना आपने संघर्ष किया, उतना हमने विचार-विमर्श किया,
कौन बनेगा बुढ़ापे का सहारा,इस बात पर रिश्ते तहस-नहस किया l
सबसे ज़्यादा मैं रहा,मैंने कभी न विभेद पाया,
जो वर्षों से घर से बाहर रहे,उन्हें सबकुछ नज़र है आया!
झूठ बोला, विभेद किया बस इतनी सी पर नाराज़गी थी,
पापा से झूठ बोलकर पैसे भेजती, इसी झूठ से मिली कामयाबी थी l
कोई कुछ भी कहे,मेरी कामयाबी के सूत्रधार हैं आप,
मैं सर्वश्व न्योक्षावार कर दूँगा, मेरे लिए भगवान हो आप l
Must Read Caption...........-
हमारे यादगार लम्हें को एक नया अंजाम देते हैं,
चलो अब अपने रिश्ते को यहीं पूर्ण विराम देते हैं ll-
हाँ! कुछ अपने ऐसे हीं साथ छोड़ जाते हैं l
अंशुमन सा उजाला लिए जीवन प्रज्वलित जब हो उठता है,
विकट परिस्थितियों से निकलकर मन प्रफुल्लित हो उठता है l
मधुर राग थी वो ज़िन्दगी, हर गम से आज़ाद थी वो ज़िन्दगी,
दो उँगलियों को पकड़कर चलना मानो मल्हार थी वो ज़िन्दगी l
सही-गलत के चोंचले लेकर अपने को शिक्षित बताते हैं,
हाँ! कुछ अपने ऐसे हीं साथ छोड़ जाते हैं l
मेरे अनुभव मेरे प्रेम, बचपन से आजतक भरे वो नैन,
उँगलियाँ पकड़कर अस्पतालों के चक्कर काटता,
हाय! गरीबी, तुझे कैसे कोई सँवारता l
धुएँ से दिन की सुबह करके, तपती भट्टी में खुद को झोंक जाते हैं,
आज वही अपने जीवन का कष्टमय कीमत चुकाते हैं l
शायद! कुछ लोग शिक्षा की पोटली को अशिक्षा की गालियारों में भूल जाते हैं,
हाँ! कुछ अपने ऐसे हीं साथ छोड़ जाते हैं l
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खाली-खाली घर एकदम से भर गया
जब एक परेशान बैठा लड़का कल रात को मर गया l-
जब व्यक्ति ऊँचाईयों को छूता है न तो वास्तव में सामने बैठा हर शख्श खामोश हो जाता है,वो बेजुबाँ अपने संघर्षों को केवल नैनों से अपना समर्पण, त्याग, तपस्या, ममता, खुद के सपनों की आहूति अश्रु के रूप में बहा बैठता है l आज उम्र की इस दहलीज पर जब अपने साथ छोड़ते हैं न तो सबकुछ एक झटके में मानो छीन सा जाता है l जो ये कहते फिरते हैं कि तूने हीं विभेद किया है तूने हीं उसे सर पर चढ़ा रखा है, तुम्हारी परवरिश हीं ख़राब थी और तू इसीलिए भोग रही है तो मैं बस एक सवाल करना चाहता हूँ उनसे कि इस बात कि वो गारंटी लेते हैं कि उनकी परवरिश बहुत हीं अच्छी होगी, उनके बच्चे उन्हें समझकर, उनकी वित्तीय, आर्थिक और मानसिक अवस्था को समझकर उनका साथ देंगे और उनका सम्मान करेंगे? जिस तरह से उनकी नसीहतें बाकियों के लिए ऐसी थी कि सब खुद से हीं सेल्फ स्टडी करके अपने मंज़िल को पाए हैं और पा सकते हैं तो यही बात खुद के बच्चे के लिए क्यों नहीं लागू करते? बस समाज में, अपने दोस्तों में और अपने colleagues में स्टेटस मेन्टेन करने के लिए बिना सोचे समझे पैसे यूँ हीं बहाये जा रहे हैं लेकिन किसी और की करनी की सजा किसी और को दिए जा रहे हैं l काश! कि किसी और की बातों में न आकर बचपन से अबतक के अपनी ज़िन्दगी का स्व-आकलन करते तो शायद भविष्य में काश! कहने की शायद संभावनाएं नहीं रहती l
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