मेरे दिन को तितली बन कर,रंगों से तू भरती है।
रातों में जुगनू भी बन कर,रौशन घर-भर करती है।
तू तुलसी मेरे आँगन की, हर विपदाएं हर लेती ,
हर दिन उत्सव सा होता है, जब तू साज संवरती है।
घोर कुहासा छा जाये या बरसे आग, गिरें ओले ,
ऋतु बसंत के जैसी तेरी आभा सदा बिखरती है।
मैं गंभीर झील जैसा तू झरने के जैसी अल्हड़,
दोनों के पानी की सीरत हुआ एक ही करती है।
स्वाति बूंद बन कर मेरे मरु-जीवन पर तू बरस गई,
संग असमतल राहें तेरे, सुगम जान सी पड़ती है।
हाथों पर जब हाथ धरा, सारी रेखाएं उलझ गयीं,
मेरी जीवन, भाग्य, तुम्हारे साथ गुजरती हैं
हाथों में तेरे डाला हाथ, हस्त रेखाएं उलझीं
आड़ी टेढ़ी पटरी पर से मेरी रेल गुजरती है।
मेरे दिन को तितली बन कर,रंगों से तू भरती है।
रातों में जुगनू भी बन कर, रौशन घर-भर करती है।
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