ले चल उस ओर जहाँ अपनों की भीड़ हो
पर अपनों की भीड़ होती कहाँ है!
अपने तो बड़े मुश्किल से 'अपने' होते हैं
कहते हैं सब तो अपने हैं
पर क्या वाकई! सब अपने 'अपने' होते हैं!
अपनों का होना जैसे कोई सपना होता है
अपने भी तब 'अपने होते हैं
जब हम ख़ुद ही 'अपने' होते हैं
ख़्वाहिश है ख़ुद से ख़ुद को मिलाने की
अपनेपन को 'अपना' बनाने की।
उम्मीद ख़ुद से ख़ुद को मिलने की है
अपने को 'अपना' बनाने की है।
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फ़रेबी वही है जो...
वही जो अनकही बात सुन लेता था
वही जो बेहतरीन बना करता था
वही जो लब्ज़ों का खेल खेलता था
वही जो दिल को बहलाता था
वही जो पिद्दी सी बात पे हँसता था
वही जो बेवजह में वज़ह दे जाता था
वही जो अनजाने में भी अपना सा था
फ़रेबी वही है जो...
वही जो सारी रात जगने की वज़ह देता था।-
तेरे मिलने की ख़्वाहिश कब की छोड़ दी थी मैंने
बस तेरे पास होने को न छोड़ पाए हम।-
तेरे ख़यालों के अब्र से निकलना मुश्किल-सा है।
तेरे सुकूँ की ठंडी छाँव से निकलना मुश्किल-सा है।
कई क़वायदें करके देख लिए मैंने,
ख़ुद को समेटा, ख़ुद को मनाया
पर अब इन बेख़यालियों में भी सब्र सा है।-
किस्से- कहानियाँ,
बनाता-बिगाड़ता हूँ मैं।
थमे उँगलियों को उठाता-बिठाता हूँ मैं।
कोई न कहे कि
तालीम अधूरी रह गई मेरी
इसलिए
फ़िर लिखता -मिटाता जाता हूँ मैं।
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'आगे' सुन लो पहिले, फिर आगे की बात करेंगे
और फ़िर उससे भी 'आगे' की बात करेंगे
'फ़िर' सुन लो पहिले।-