सहता हु चुप रहता हूं
ना किसी से कुछ कहता हूं
दर्द भर कर सीने में ,
झूठी खुशी दिखलाता हूं
तब जाकर पुरुष कहलाता हु
संगिनी के साथ का ,
बच्चों के आस का
माँ बाप के विश्वास का
हर बोझ मैं उठालता हु
तब कहीं मै पुरूष कहलाता हु
दुख ह है दर्द है
पर निभाता हु जो फर्ज होता है
दुनिया दारी की कश्मकश
जमाने की मार
चुप चाप ही सह जाता हूं।
तब कही पुरुष मैं कहलाता हु
खुद के लिए छोड़
सबके लिए जीता हु
चाहतों को तोड़
पीस घुट कर पिता हु ।
जो हाल पूछे कोई
सब ठीक ही बतलाता हु
तब कहीं जाकर पुरुष मैं कहलाता
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