लाशों में अच्छाइयाँ खोजना गिद्धों का काम है
सच कहना जोख़िम उठाना नहीं होता
यही तौर होना चाहिए था
मग़र सच कहना जोख़िम उठाना है
मेरी जबान भी उन तमाम जबानों की तरह
किसी तलवार का चारा है
जो बोलती थी बोलती हैं
लाशों पर से गोश्त नोंचते हुए
गिद्धों का सौंदर्य-बोध तुम्हें मुबारक
मैं देख रहा हूँ भूखे भक्षक
झुंड से अलग होते ही
हम सब भी मारे जाएँगे!
मुर्दों को मुर्दा कहना निराशावादी
होना नहीं है।-
मैं साझा करना चाहता हूँ
दर्द
उस मजदूर का
जिसकी मजदूरी बकाया है
उस किसान का
जो स्वयं भूखा है
उन आदिवासियों का
जिनके बारे में
हम कुछ नहीं जानते!
उन अल्पसंख्यको का भी
जो कुछ कहना चाहते है
उन जँगलो का
जो जल रहे है
उन बच्चों का
जो कूड़ा बीन रहे है
औऱ उन महिलाओं का भी
जो भात लेकर लौटी नहीं!
मैं आदमी होना चाहता हूँ
औऱ तुम मुझें कम्युनिस्ट कहते हो!-
तुम्हारे इन सियासी सवालों का फ़लसफ़ा है
मोहब्बत तुमने की नहीं! औऱ हम बेवफ़ा हैं
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सावन सी सुंगध
उठती है
जब अट्टहास करते हुए
समंदर से
कल-कल के मधुर संगीत संग
नदी जा मिलती है
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मैं चाहता हूँ
मेरी लिखी हर बात
अप्रासंगिक हो जाएं!
नफ़रत,भय और चीखों
को कोई ना जाने!
सब आपस में करें दिल्लगी
औऱ कहें
यह अंनत भी कितना मूर्ख
आदमी था
यूटोपिया में ही ज़िया औऱ मर गया
मैं चाहता हूँ
प्रेम की प्रासंगिकता बनी रहे।-
प्रकृति औऱ पृथ्वी की
जिम्मेदारी लाखों सालों
से ढ़ो रहे है वो
तुम्हारी शरारत औऱ बेवकूफियों
को हजारों सालों से
अपने पेटों पर सह रहे है जो
तुम उन्हें कितना
जानते हो?
रत्ती भर भी नहीं!
जल, ज़मीन और जँगल
बचाने को
जब भी खड़े हुए वो
तुमने उन्हें नक्सली
कह पुकारा!
आख़िर क्यों?-
कुछ दोस्त है
जिन्होंने मुझसे पहले
ठिहिया ढूँढा
मुझें ढूढ़ने का दावा
किए बग़ैर
वह ठिहिया जहाँ
हम संग बर्बाद हुए-
मेरी कविताएँ उनकी
खोज पर है
जिन्हें लौटना था
वह टेरती है उचटी
आवाज़ में
हर पूर्वाग्रह को झुठलाते
हुए
शायद फ़िर दिन
ढल गया!-
तुम्हारी सोच महज़
स्मृतियों का प्रतिबिंब है
डर तुम्हारे मस्तिक को
संकुचित कर देता है
इतना संकुचित कि
तुम्हारा इंसान बने
रह पाना भी मुमकिन ना हो!-
तुम्हारी विरह में
मैं क्या करूँगा ?
नीम औऱ आम के पेड़ लगाऊंगा
नए नारे लिखूँगा
न्याय के लिए सँघर्ष करूँगा
औऱ एक दिन मर जाऊँगा
तुम्हारी विरह में
मैं तुलसी नहीं
राम हो जाऊँगा!
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