समय सुई की नोंक की तरह पैना होकर तुरपाई कर रहा है..
और अतीत उधड़ता ही जा रहा है..
कोई ऐसा रिश्ता ही नहीं है जो इस टूटे मन को पूरी तरह ढ़क सके..
हर रिश्ते में मन का कोई कोना छूट ही जाता है..
एक उम्र के बाद इंसान इतना तो समझ ही जाता है
कि मन को फिर से जोड़ने की सारी कोशिशें बेकार है..
हम छुपाना सीख जाते हैं..
ढकना सीख जाते हैं..
सारे रिश्ते कतरन लगने लगते हैं..
कतरनों में जीवन रह गया है
और ये कतरनें क्या काम की है..?
कभी कभी लगता है कि
कोई ख़ूबसूरत रिश्ता इन कतरनों को जोड़कर मन को ढ़क लेगा..
फिर लगता है कि.. शायद नहीं...
टूटते मन को किसी भी रिश्ते की कतरन ढक नहीं सकती..
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