मुझे छत के ऊपर बैठकर
यह आसमान
बहुत खूबसूरत लगता है
तो क्या
जिनके ऊपर
छत नहीं होती होगी
उन्हें भी यह आसमान
इतना ही खूबसूरत
लगता होगा ।-
मत पूछो धूप से
कैसे हुआ यह हाल
सुबह थी जो गुनगुनी
शाम हुई क्यूं लाल
ढलते दिन के बीच
क्यूं बदला यह रूप
क्या ग़लती,किससे हुई
जो लाल हो गई धूप-
जेठ की तपती धूप में
बिना किसी छांव के
खेत की मेड़ पर बैठना
जलते हुए सूरज को नंगी आंखों से देखना
और महसूस करना देह की जलन को
निकल जाने देना देह का सारा पानी
पिघलने जाने देना चमड़ी का हर इक कण
जल जाने देना अस्थि का जर्रा जर्रा
मरने देना तृष्णा को बार बार
उठना , चलना चार कदम छांव की ओर
फिर रुक जाना पेड़ की तरह
तब ,
तुम मनुष्यता के आयाम से पार होंगे
तुम बिना गति के गतिशील होंगे
तुम्हारी देह धूप और छांव के बंधन से परे होगी
तुम पेड़ होंगे , शीतल छांव और
हवा देने वाले , परहितकारी पेड़ ।-
हवाओं ने दिशा बदली
बदल गया मन
मेघों ने सूरज को घेरा
पंछियों ने बदला डेरा
पत्तों ने साख को छोड़ा
लहरों ने बांध को तोड़ा
अमावस की रात आई
अंधेरे ने बिसात बिछाई
राह से चिन्ह मिटे
डर गया मन— % &-
ओस से भीगी धरती पर
गिरती जब पीली धूप
सारे रंग निखर जाते
हो जाती रंगीली धूप
सर्दी की ठिठुरन से बचने
दौड़े छत पर जाते हैं
देख हमको छिप जाती
यह है बड़ी शर्मीली धूप-
उसने नोट कमाएं , कुछ और कमाया ही नहीं,
जिसके खातिर वह धरती पर आया , उसे ले जा पाया ही नहीं ।
इन नोटों की गड्डी को कमाने के क्या फायदे ,
जब आप ने उसे नोटों की अर्थी में जलाया ही नहीं ।।-
शिल्पी ( मनोभावों का)
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सुख औंधे मुंह पड़ा है,
दुःख सिर पर चढ़ा है ,
पीड़ा दिल पर सवार हो ,
धमनियों से होकर
दौड़ रही पूरी देह में ,
मुस्कान पर हंस रहा है
रुदन ,
क्षुधा और तृष्णा से
मिल गए हैं छाती और
घुटनें ,
आंखों की अश्रु सूख कर
कोर में मोती सी चमकती है ,
यह दशा है उस शिल्पी की
जिसने बनाएं थे
यह सारे मनोभाव-
पहला पग उठा के साथी ,
किस डगर की ओर चलूं ?
जागते सपनों में सोच रहा ,
किस रजनी की भोर चलूं ?
गर बीच राह में भटक गया ,
या किसी जाल में अटक गया ,
तो बच निकलने के खातिर
क्या पीछे बांधे डोर चलूं ?
पहला पग उठा के साथी,
किस डगर की ओर चलूं ?
(सम्पूर्ण रचना अनुशीर्षक में)
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