krishna shukla   ("कृष्ण")
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Joined 12 April 2019


Joined 12 April 2019
3 MAY 2022 AT 19:30

मुझे छत के ऊपर बैठकर
यह आसमान
बहुत खूबसूरत लगता है
तो क्या
जिनके ऊपर
छत नहीं होती होगी
उन्हें भी यह आसमान
इतना ही खूबसूरत
लगता होगा ।

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2 MAY 2022 AT 19:20

जब तुम पर धूप पड़ेगी
तभी तुम छांव दोगे

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20 APR 2022 AT 17:52

मत पूछो धूप से
कैसे हुआ यह हाल
सुबह थी जो गुनगुनी
शाम हुई क्यूं लाल

ढलते दिन के बीच
क्यूं बदला यह रूप
क्या ग़लती,किससे हुई
जो लाल हो गई धूप

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16 APR 2022 AT 21:02

डर (मेरी सोच में )

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15 APR 2022 AT 23:03

जेठ की तपती धूप में
बिना किसी छांव के
खेत की मेड़ पर बैठना
जलते हुए सूरज को नंगी आंखों से देखना
और महसूस करना देह की जलन को
निकल जाने देना देह का सारा पानी
पिघलने जाने देना चमड़ी का हर इक कण
जल जाने देना अस्थि का जर्रा जर्रा
मरने देना तृष्णा को बार बार
उठना , चलना चार कदम छांव की ओर
फिर रुक जाना पेड़ की तरह
तब ,
तुम मनुष्यता के आयाम से पार होंगे
तुम बिना गति के गतिशील होंगे
तुम्हारी देह धूप और छांव के बंधन से परे होगी
तुम पेड़ होंगे , शीतल छांव और
हवा देने वाले , परहितकारी पेड़ ।

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26 JAN 2022 AT 8:39

हवाओं ने दिशा बदली
बदल गया मन

मेघों ने सूरज को घेरा
पंछियों ने बदला डेरा

पत्तों ने साख को छोड़ा
लहरों ने बांध को तोड़ा

अमावस की रात आई
अंधेरे ने बिसात बिछाई

राह से चिन्ह मिटे
डर गया मन— % &

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23 JAN 2022 AT 22:39

ओस से भीगी धरती पर
गिरती जब पीली धूप
सारे रंग निखर जाते
हो जाती रंगीली धूप
सर्दी की ठिठुरन से बचने
दौड़े छत पर जाते हैं
देख हमको छिप जाती
यह है बड़ी शर्मीली धूप

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21 JAN 2022 AT 10:11

उसने नोट कमाएं , कुछ और कमाया ही नहीं,
जिसके खातिर वह धरती पर आया , उसे ले जा पाया ही नहीं ।
इन नोटों की गड्डी को कमाने के क्या फायदे ,
जब आप ने उसे नोटों की अर्थी में जलाया ही नहीं ।।

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28 NOV 2021 AT 12:04

शिल्पी ( मनोभावों का)
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सुख औंधे मुंह पड़ा है,
दुःख सिर पर चढ़ा है ,
पीड़ा दिल पर सवार हो ,
धमनियों से होकर
दौड़ रही पूरी देह में ,
मुस्कान पर हंस रहा है
रुदन ,
क्षुधा और तृष्णा से
मिल गए हैं छाती और
घुटनें ,
आंखों की अश्रु सूख कर
कोर में मोती सी चमकती है ,
यह दशा है उस शिल्पी की
जिसने बनाएं थे
यह सारे मनोभाव

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20 JAN 2022 AT 10:22

मैंने देखा तारों को छिटकते हुए
टूटे,बिखरे टुकड़ों से बनते हुए

चांद की चांदनी से संवरते हुए
सूरज की दुपहरी से डरते हुए

हवा के झोंको से पत्तों सा झरते हुए
टूटते तारों की मन्नत को मरते हुए

गंगा के तीर ,झोपड़ी में कंदील सा जलते हुए
बूढ़ी धुंधलाई आंखों में ख्वाब सा पलते हुए

अमावस की रात के खालीपन को भरते हुए
मैंने देखा तारों को अंधियारी से डरते हुए

मैंने देखा शीत में तारों को सिसकते हुए
आंखों से ओस की बूंदों को गिरते हुए

मैंने देखा तारों को बदलते हुए
मैंने देखा तारों को सिमटते , छिटकते हुए

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