कौन कहता है? कौन कहता है? खिड़कियाँ बस हैं रोशनी देतीं.. ज़रा इन किवाड़ों को खोल कर तो देखें ज़नाब, यहाँ हर एक दरीचे की है अपनी कहानी| कुछ की रहस्यमयी, तो कुछ की सारे मोहल्ले ने जानी| ये खिड़कियाँ बस खिड़कियाँ नहीं हुज़ूर, संदूकची है यें, फलकों में अपने, जो समेटें बैठीं, हमारी -आपकी ना जाने कितने ही, यादें पुरानी|
At times my life seems to be like a piece of paper, people come scribble their stories, scrabble it the way they wish and throw it away... And the saga continues...