लम्बा है सफ़र सितमग़रों को दूर किया जाए
बे-हद-ओ-बे-हिसाब ख़ुद पर ग़ुरूर किया जाए
कि लाज़मी है रुख़सत इस मतलब के दौर में
तो चलो फ़िर जज़्बातों को मस्तूर किया जाए
पलकों पे अश्क़ों का एक आशियाना बने
अब इतना भी न खु़द को मजबूर किया जाए
ये मोहब्बत की दुनिया महज़ चार दिन की
तो अब नफ़रत में ख़ुद को मग़रूर किया जाए
दोस्तों की महफ़िल और मयख़ाने की तलब
फ़िर साकी के दो जाम का सुरूर किया जाए
कि दम निकला है अधजले चराग़ों के नूर से
अब इससे बेहतर है ख़ुद को बेनूर किया जाए
सब समझने के ख़ातिर कुछ उलझना पड़ेगा
चलो ज़िन्दगी का हर मंज़र मंज़ूर किया जाए-
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मुझे याद है शब-ए-क़यामत सफ़र की
फ़िर भी न जाती ये आदत सफ़र की
ना चाहत है मंज़िल ना रहबर कोई अब
मशरूफ़ है दिल में मोहब्बत सफ़र की
बड़ा मुश्क़िल है लगता ज़माना समझना
समझ आती है मुझको इबारत सफ़र की
एक अरसे से दरकार थी बन्दगी की
कि कोई तो दे अब इजाज़त सफ़र की
ज़रा देखूँ हक़ीक़त है ख़्वाबों में कितनी
हर ख़्वाब में लिख दी हक़ीक़त सफ़र की
कि यहाँ तज़ुर्बे से हर एक शहर है भरा
कहाँ ले जायेगी मुझको हसरत सफ़र की-
क्यूँ ख़ुद को बेहतर बताकर मिलते हैं
लोग चेहरे पे चेहरा लगाकर मिलते हैं
कि फूल दे कर गले तो लगाते मग़र
वो हाथों में खंजर छिपाकर मिलते हैं
पहली नज़र का असर कुछ नहीं है
वो यकीनन हमें आज़माकर मिलते हैं
रखते हैं हमको जलाने की ख़्वाहिश
हमसे ही दिल को जला कर मिलते हैं
अक्सर महफ़िल में बग़ावत करने वाले
अकेले में नज़रों को झुकाकर मिलते हैं
इश्क़ सच्चा जो हमको सिखाते हैं उफ़
वो ख़ुद दस जगहों से आकर मिलते हैं
कुछ इबादत से हैं कुछ सियासत से हैं
यूँ ही नहीं हर शहर में शायर मिलते हैं-
कई शहर के फ़सानों का क़िरदार हो गया है
एक ख़ाली सा पन्ना अब अख़बार हो गया है
कि उन दरख़्तों की शाखों को यूँ काटो न तुम
एक नासमझ सा परिंदा समझदार हो गया है
ख़ूबसूरत हुआ है अब सफ़र ज़िन्दगी का
एक मतलबी सा यार दरक़िनार हो गया है
कि जब से फ़ूलों की बस्ती में रहने लगा हूँ
जो ख़ार बाकी था मुझमें गुलज़ार हो गया है
अब ज़माने भर में तो यूँ हीं ना मशहूर हूंँ मैं
वफ़ादारों की फ़ेहरिस्त में शुमार हो गया है
कि इश्क़ दो - चार दिन का ना होना है मुझसे
मुझे क़लम और स्याही का ख़ुमार हो गया है— % &-