आ चाहत में लफ्जे उबार दू ,
आ दिलों से तुझको निकाल दू।
तेरी तस्वीरों से सिसक रही है आखें,
आ आखों में ही तुझको मार दू।
कोई बेरूखी न होगी इस दिल पे मेरे,
आ रूह से तुझको उखाड़ दू।
ये जल्जला है ईश्क की जो,
फिर जिवन ही क्यों न त्याग दू।
कोई अग्नि-वीर नहीं है कलम मेरा,
वरना दिल कि सरहद पे ही जिन्दा गाड़ दू।
तू चढ़ी है जिस आखों में ईश्क लहू बन कर,
क्यों न उस आखों में जख्म के बीज डाल दू।
सुनो कनिष्क ये ज़मीर देखेगी,
मै उस प्रेम पत्र से खून उबाल दू।-
(शब्द काफी है मेरे मुझे समझने को एक दफा इन्हें अपना बना कर तो देखो।... read more
वो क्या संभालेंगे... ही मुझको,
वादों में जिसके व्यंग है।
मै १०० बार टूट का संभल चुका हूं,
लफ्जो में कैसे... उनके ही दरमियान रहेगें।
वो मसलन है कि मुझको सब्र इंतजा कहेंगे,
पर जहां वाशुलो में ही जिनके तंज है।
क्या फासलों की आ घड़ी है,
कभी बाहों में जिनके हम दिव्यंग थे।
मेरी फलसफा भी घेरती है मुझको,
मै क्यों कहता रहा की उसका अभिन्न अंग है।
वक्त की मशाल ले कर,
करता मन रात्रि में भी हुड़दंग है।
एक बात सुन लो तुम भी कनिष्क,
उनका मक्कार मन ही मुखबरी के संग है।-
शोर है जो देव घरों में,
दिल तक किसके पहुंचाती है।
त्यौहार है या है सिर्फ जश्न तुम्हारा,
पूछ कर बाकियों से आए हों।
शोर मजबूरन कर रहें जो इतना,
या पैदा कर रहे हो दिलों में दूरियां।
मिश्रण देखा है भक्ति भाव विभोर हुए,
कर इंतहा सुबह की बेला में।
त्यौहार है तुम्हारी खुशियों का,
फिर हमें सजा क्यों तेरे मस्तियों का।
स्वर देखे हैं तुम्हारे भक्तियों के,
अशलील स्वर के गानों में।
अच्छा है देव क्यों न प्रसन्न होंगे,
इस कदर दिलों में भक्ति शराबोर है जो।-
चंद खुशियों के ओझल में,
तुम टटोल रहे हो मन की मदिरा।
जमीं के सम्मान को ठेस दे कर,
वाह...अपने ही गरज से बरस रही है बदीरा।
आजीवन भले ही काट लो,
कर के स्वार्थ प्रारूप से दीदारी।
कल बीता है पर कल भी होगा,
हम कल ही दिखेंगे ये मुखबरी में कैसी लाचारी।
संगीन है चरितार्थ तुम्हारा,
ढक सको तो शराफत ओढ़ लो।
कोई नहीं... हम देख लेंगे,
कल की जन्मी ये विचारधारा।
ये भाव है जो विशाल होगा,
लिखेगा संग रहने वालों की नई परिभाषा।
रहने दो कनिष्क तुम हर उस तंज को,
देखो कोई तो उत्साहित है तुम से आगे बढ़ कर।-
रौनक है पूरे जग में,
लेकिन दिल में क्यों अंधेरा है।
हर्षो उल्लास है देव पूजन में,
फिर इंसान फितरत से क्यों मन मैला है।
सवाल उठाएंगे हम संजीदगी पर,
गर अहंकार से तू विषैला है।
खुशियां मै दावत दो झूठी शान की,
जब चिंतन मरण की लैला है।
ये सब तुम्हें न दिखाई देगी,
पर याद रखो घर पे दर्पण की भी एक नैना है।
काश अभिमान हो कृतज्ञता की,
पर देख लो यहा मुखोटो की ज्ञापन है।
कैसा प्रमाण प्रेम परिणाम घोषित,
अछूत अंधभक्ति की खेला है।
क्यों न तुम भी स्वार्थ रखो दिल में कनिष्क,
ये दुनियां बईमानो की मैला है।-
रोक दो तुम कोशिशों को
क्यों करते हो इतना जतन।
पुरुष बन कर पैदा लिए हो
अपने आसू छुपाओ अंधकार संग।
बोझ देगी ये पूरी दुनिया
चल सको तो खुद को कर लो नमन।
छिल जाएंगे पैरो में छाले
न बिलखना तुम दर्द मान कर।
ये समाज है तुमको तंज देगा
विष पियो खुद को शिव मान कर।
स्त्रीया बियाह दी जाएंगी सफलता में
साथ शर्म और सम्मान संग।
पर तुम पुरुष में पैदा लिए हो,
तो बस जिंदा रहो खुद के अभिमान संग।-
काश किसी.... स्कूल, कॉलेज या घर में ये सिखाया जाता
कि लड़कियों तुम ऐसा न कोई काम करना जिस से कोई लड़का परेशान और दुखी हो या उसका जिवन तबाह हो जाए।
पर दौर ऐसा है की,
हर स्कूल, कॉलेज, घर, मंदिर, मस्ज़िद, बैनर, दीवारों और सरकार के फरमानों में सिर्फ ये लिखा है की लड़का हो तुम ऐसा कोई न काम करना जिस से लड़कियों का ज़िंदगी बर्बाद हो जाएं।
पर एक एक को पता है कि लड़को के कंधों पर कितना बोझ और ज़िम्मेदारी है।
कौन बताएं सबको की, आज के दौर में लड़का होना आसान नहीं है।
खास कर जब वो मध्यम वर्गीय परिवार से हो।-
आज दशा कृष्ण की बदल गई है,
इस चलती दौर में गोपियों की मनमानी,
इनका प्रेम रहा न मुठ्ठी भर भी,
प्रश्न करो तो आना कानी।
रंग बदले कपड़े बदले,
खेल खेल में ही कृष्ण की हानि,
हर दौर कृष्ण ने देखा है,
रंगत राधा की हुई सयानी।
कालखंड में जो बदला है,
दिशा निर्देश प्रेम की हुई पुरानी,
ज्यादातर प्रेमी तो कृष्ण बचा है,
दुःखद गिनती के राधा रानी।
ये दौर, उस दौर से बदला बदला-सा है,
आईना है, लेखनी कहे कहानी,
प्रेम परिणाम है स्वार्थ की,
और एक तरफा हो तो नादानी।-
आज कृष्ण बिलख कर दुबक रहा है,
कहा बैठी हो तुम राधा रानी ?
आज क्यों प्रेम वृत्तांत की गोद में पड़ा है,
ये कैसी दिशा निर्देश है ठकुरानी।-
राधा ने तो प्रेम रचा है
कृष्ण की बन कर दीवानी।
क्या समय वही है तुम बतलाओ,
क्या तुम जैसी होती है राधा रानी ?-