कल्पित   (कल्पित)
465 Followers · 42 Following

read more
Joined 20 January 2021


read more
Joined 20 January 2021
2 MAY AT 9:34

वाकिफ है परवाना अपनी तहरीर-ए-मुकद्दर से लेकिन,
ना शमां बाज़ आती है, ना परवाना बाज़ आता है।

-


1 MAY AT 10:03

होते होंगे ज़िंदगी में चार दिन
शायरों की निगाह में।

पर कभी मजदूर की त्वचा में फिसलकर देखना
इनकी जीवनी में बस दो दिन होते हैं।
पहली जन्म की तारीख
और दूसरी मरने की।

और इन दोनों दिनों के बीच पसरी रहती है
पसीने में लथपथ
बेबसी... लाचारी... भुखमरी।

-


29 APR AT 17:15

"कशिश किस काम की उसको ज़रा भी वक़्त ना निकले,
बड़ी मोहलत से आया हूं वो घर से भी ना निकले,
मुलाकातों की उस मासूम ने ये शर्त रक्खी है,
कि चलके कांच पे आओ हलक से आह भी ना निकले"

-


29 APR AT 9:09

ईश्वर ने
"कुछ नहीं" से
"सब कुछ" बनाया है

लेकिन
"सब कुछ" परदे के पीछे है
और हमको
"कुछ नहीं" दिखाई देता है।

-


28 APR AT 21:19

तुम्हारी यादों को मैं कभी
कागज़ पर लिखकर
नहीं सहेजता।

मैं रोज रात
तारों से भरे आकाश में
तुम्हारी यादें गूंथ देता हूं,
कि यदि किसी दिन
मेरी यादाश्त चली भी जाए तो
रात में जब भी मैं आकाश की ओर देखूं

तब पूरा ब्रह्मांड मुझे तुम्हारी याद दिला दे।

-


28 APR AT 10:10

"हम थे रिश्तों की डोर पकड़ने वाले,
तुम ही निकले हर बार बिगड़ने वाले,
जा रहे हो मुझे छोड़कर ये तो बता दो,
तुम होते कौन हो मुझसे बिछड़ने वाले !"

-


27 APR AT 21:20

-


27 APR AT 17:50

है ज़मीं शुष्क तो होंठों से मैं बरसात लिखूं।
मैं अपना प्रेम लिखूं फिर मैं अपना साथ लिखूं।

अनुभूति है कुछ अभावों की इस जीविका में।
मैं तेरे नेत्र से चिर प्रेम का आयात लिखूं।

कर दूं कल्प सा विस्तृत हर क्षण हर्ष का मैं।
अकाट्य हो जो मन्वंतर , उसे अतियात लिखूं।

तुमसे भेंट क्या बस स्वप्न तक सीमित रहेगी।
प्रेम यथार्थ लिखूं या फिर एक मिथ्यात लिखूं।

हथेली तूने बढ़ाई है कि कुछ कर दूं अंकित।
मैं सोचूं वर्ण लिखूं शब्द लिखूं या बात लिखूं।

-


26 APR AT 22:52

मैंने गणित के सूत्र
उंगलियों के पोरों पर इकट्ठे किए हैं

पर मैं क्या करूं
मेरे कविमन के पास ये स्वीकारने के अलावा
कोई विकल्प नहीं है

कि प्रेम कोई प्रमेय नहीं जो
जो एक पृष्ठ में सिद्ध हो जाती हो।

प्रेम अपरिमेय है।

-


26 APR AT 19:01

"वो नन्हीं सी डिबिया में जुगनूं पकड़ना,
वो टॉफी की संख्या से अतिथि परखना,
गली में निकलती थीं जब भी बारातें,
वो बाजे पे बेसुध सा होके मटकना।

ढूंढता फिर रहा हूं मैं कब से ये मोहलत,
हां ठुकरा दूं ये मेरे हिस्से की दौलत।

खुदा मुझको दे दे मेरी इतनी गुज़ारिश
वो तितली, वो बचपन, वो झूला, वो बारिश।"

-


Fetching कल्पित Quotes