बिखर बिखर से गए हैं मेरे जज़्बात मुकम्मल
मगर फिर भी इस नादान-ए दिल को उम्मीद बहुत है
आधी रात का वक़्त है और हम जागे हुए हैं
ये और बात है कि आंखों में फिर भी नींद बहुत है
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कविता,
जो पलती है, आत्मा के गर्भ में,
समय लेती है अपना आकार लेने में,
कवि का कोई गूढ़ भाव डाला जाता है,
बीज रूप में, गर्भ की परिसीमाओं में,
और शब्द दर शब्द वो अगाध होती जाती है
(अनुशीर्षक में पढ़ें)
📖 कल्प (अभिजीत शर्मा) ✍️
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तुझे चाहने में इतने मसरूफ़ रहे हम
तुझे ना सही, तेरी वफ़ा को मक़बूल रहे हम
बेशक ग़ैर-ज़रूरी रहे ज़माने के लिए
मगर ग़म ये है कि तेरे लिए भी बेफ़जूल रहे हम
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सफर की आखिरी हद़ तक
जहाँ मंज़िलों का ठौर ठिकाना होगा
हमें वहाँ तक जाने के लिए
रास्ते के हर पत्थर को आज़माना होगा
चला जाता हूँ चुपचाप मैं इन अंधेरी राहों पर
जानता हूँ कहीं तो उस सवेरे का आशियाना होगा
जज़्बातों की जमीं से कुछ लफ्ज़ चुनकर लाया हूँ
कभी तो मुकम्मल इन लफ़्ज़ों का अफसाना होगा
वो जो छोड़ गया है हमें बिना कोई ख़बर किए
उससे पूछो हमें छोड़ जाने का कोई तो बहाना होगा
सिर्फ़ चाहने भर से तो कुछ होगा नहीं
हमें वफ़ा निभाने का कोई और तरीका अपनाना होगा
©️ कल्प (अभिजीत शर्मा) ✍️
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हमारी सिरफिरी वफ़ा का अंजाम ये हुआ
कि हर तरफ़ शोर है हमारी बदनामी का
हम दरिया में उतरे थे, पार जाने को
तो देखा कि रंग बदल गया है आजकल पानी का
हमने तो वफ़ा के बदले वफ़ा चाही थी
मगर वो मज़ाक बना गया हमारी जवानी का
उसके सलवार की तारीफ़ क्या की हमने
उसने लिबास ओढ़ लिया बदगुमानी का
( बदगुमानी - शक)
©️ कल्प (अभिजीत शर्मा)✍️
(Read in caption)
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