तकलीफों में गर बेतकल्लुफी सी आने लगी है..
हाँ तुझे ज़िंदगी जीनी अब कुछ आने लगी है..-
जान पहचान वालों से अब कतराता हूँ मैं
बेग़ानों से गुफ़्तगू करके मुस्कुराता हूँ मैं
दिन महीने साल, अपनी रफ़्तार में हैं
उनको पकड़ नहीं पाता हूँ मैं
दिल को अब जहां में कोई आशियाँ नज़र नहीं आता
बे-आशियाँ जिए जाता हूँ मैं
अब तो ख़्वाब देखना कर बंद 'किशोर'
बारहा तुझको जगाता हूँ मैं-
मुझे शतरंज से वैसे तो कोई शिकायत नहीं है
पर बस प्यादे को ही क्यों पीछे लौटने की इजाज़त नहीं है-
ज़रा झुक के चला कीजे
अकड़ की बीमारी अच्छी नहीं होती
मुझे समझाते हैं अक्सर लोग 'किशोर'
के बहुत ख़ुद्दारी अच्छी नहीं होती-
ज़िंदगी किसी की, इस दौर से भी गुज़र जाती है
कुछ देर आह करता है आदमी, फिर आह भी मर जाती है-
आम जब कच्चा होता है, तो छिलके को बड़े कस के पकड़े रहता है, और गुठली को बड़ी आसानी से छोड़ देता है..
वही आम जब पक जाता है, तो छिलके को बड़ी आसानी से त्याग देता है, पर गुठली को पकड़ लेता है..
मन जब कच्चा होता है, तो बाहरी भौतिकता को पकड़ के रखता है, और आंतरिक शांति की परवाह नहीं करता, वही जब पक जाता है तो भौतिक वस्तुओं की परवाह नहीं करता..-
शिष्य: "गुरुदेव मन में हमेशा कोई न कोई प्रश्न बना ही रहता है, ऐसा कौन सा उत्तर है जो हर प्रश्न को शांत कर दे.."
गुरु: "जाने दे.."-