सोचो सौमित्र अगर चाहते तो अयोध्या में रह कर प्रासाद का सुख भोग सकते थे, उर्मिला जी अगर चाहतीं तो अपने पति को अपने साथ रहने को विवश कर सकतीं थी
किन्तु दोनों ने ही अपने कर्त्तव्य को सर्वोपरि रखा
जहां अपने भैया भाभी की ढाल बन श्री लक्ष्मण ने निद्रा का त्याग किया, वहीँ उर्मिला ने माताओं की सेवा करने के लिए अपने नव विवाहित वर से चौदह वर्षों की दूरी को स्वीकार किया, प्रतीक्षारत रहीं
आज भी कितने ही लक्ष्मण सीमा पर अपना कर्तव्य निभाने जाते हैं, और कितनी उर्मिला प्रतीक्षारत रहती हैं
कहते हैं दीपोत्सव के दीपक प्रभु श्री राम और माता सीता के अयोध्या पुनरागमन की खुशी में प्रज्वलित किए गए, परंतु उर्मिला के लिए तो यह दीपक अपने प्रियतम से मिलन की राह प्रकाशमान करने वाले सुन्दर मोती थे
दीपावली अभी समाप्त नहीं हुई! एक दीपक उन सैनिकों के लिए भी जगाएं जो अपने कर्तव्यों के पथ पर चल रहें हैं और उस पथ पर उनकी राह निहारती हैं उनकी उर्मिला!
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