कि अब कहने लगी हूं
तो सुन ही लो!
एक रोज
बातें अनकही सी रहने लग गई थी
दो होंठो के बीच में दब कर,
राज़ की तरह दफ़न होने लगे थे
कुछ घाव,
इस तरह कुछ रातें अधूरी सी रहने लग गई थीं
अब सूख चुके वो फूल, किताबों के पन्नों में
बिखर कर
जो कभी तुमने दिए थे मुझे,
आज आज़ाद होना चाहते थे जिन पन्नों से
उन्हीं में एक ख़्वाब बन कर सिमट गए
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