वैराग्य वह देख सकता है
जो चाह कभी नहीं देख सकती
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ज्ञान की असीमित सीमाओं से
एक सूक्ष्म ज्ञान
बहा और बहता गया
अनंत वर्ष अनंत युग बीते
ज्ञान के गर्भ से ज्ञानी का जन्म हुआ
ज्ञानी ने अपने ज्ञान को अपने पितामाह से तोला
ज्ञानी को अपने ज्ञान से स्वज्ञानी हो जाने का दंभ हुआ
ज्ञानी बढ़ता गया विध्वंस मचता गया
ज्ञान ही जीता और ज्ञान ही हारा
उस ज्ञान से फिर एक ज्ञान का जन्म हुआ
निरंतर विध्वंस मचा और ज्ञानी बढ़ता रहा...
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मृत्यु पर विजय प्राप्त कर लेना
और मृत्यु को समझ लेने में
बहुत अंतर है...
असुर या सर्वशक्तिशाली जीव अनंत काल से
मृत्यु पर विजय की अभिलाषा रखते आए हैं
और आज भी रखते हैं
कम ही हैं
जिन्होंने मृत्यु के मर्म को जाना
और अनंत में रम गए
मुक्ति और मोक्ष मृत्यु का सार ही है
उसपर विजय हो ही नहीं सकती
ना कोई मशीन चेतना उत्पन कर सकती है
ना कर पाएगी
चेतना पैदा हो ही नहीं सकती
वो अनादि है सत्य है
मनुष्य की चेतना चैतन्य से तभी एकात्म होगी
जब शून्य का शून्य से मिलन हो...-
छल लग जाया करता था बहुत...
उन गाड़ गधेरों में...
सोचता हूं...
तो मन में बस यही आता है..
वो यक्ष अब कहां रहते होंगे...
जो झपक जाया करते थे गाड़ गधेरों में...
आ जाया करता था तेज बुखार...
कंपकंपाते हुए कभी दिन में उतरता और रात में चढ़ता...
किसे सताती होंगी उन अनंत औरतों की आत्माएँ...
जो बरसों पहले खुद किसी श्राप का शिकार हो जाया करती थीं..
पहाड़ के हर गांव में....
क्या आज भी वो आत्माएं झपकती होंगी...
क्या आज भी भिभूत की राख माथे पर मल कर...
और परख के कुछ दाने राई के लाल मिर्च पर...
क्या वो रात का तेज़ बुखार आज भी...
ठीक हो जाया करता होगा...…
सोचता हूं...
जब ये पहाड़ इतने विस्मयकारी हुआ करते थे...
तो आज क्यूं सूने पड़े हैं...
वह गधेरे जहां अंत एक राख के रूप में बहकर...
गंगा में मिल जाया करता था...
कहां गए वह पहाड़ वह गधेरे और वह यक्ष...
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अच्छी किताबें किसी भी इंसान के सभ्य होने की पहली निशानी होती है...
Good books manifest the true sign of humans character...
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मरघट ना घटता बस सजता
दावग्नी के यौवन से
देखो कैसे लाल धधकता
तृप्त अतृप्त सारी इच्छाऐं
भस्म करता वेदना की कराहें
जाने कितने काल खंड से
इसने नित श्रृंगार किया
इस मरघट ने पल पल
धधक धधक उपहास किया
चाहे हो विद्वान, महात्मा
अभिमानि या महाज्ञानी
सबका इसने ग्रास लिया
ये श्वेत सी खोपड़ियां
अकड़ ज्ञान की जो दिखलाती थीं
तोड़ी फोड़ी गई यहां सब
शून्य इनका सब सार किया
इस मरघट ने पल पल
धधक धधक उपहास किया-
उस शाम की बात भी अजब थी
स्याही की दवात में
मय बंद थी
कलम क्या डूबी
क्या खुमार चढ़ा
ना शब्द रुके
बस उस कागज़ का इश्क़ परवान चढ़ा
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जनाज़े निकल गए इस क़दर , फ़ुर्क़त तन्हाई में...
कि मेरा माज़ी भी ,अब हँसता है मेरी ख़लिश पर...-
चाय पीने का वास्तविक आनंद लेने के लिए,इसकी मीठी सुगंध में खो जाने के लिए,इसका वास्तविक स्वाद चखने के लिए तथा कप की गर्माहट महसूस करने के लिए हमारा 'इस' पल में होना बहुत जरूरी है;वर्तमान के प्रति पूरी तरह सजग और होशपूर्ण..यदि हम गुज़रे कल की घटनाओं में अटके होंगे या आने वाले कल की चिन्ताओं में उलझे होंगे..तो होगा यह की जब हम गर्दन झुकाकर कप की ओर देखेंगे तो पाएंगे कि चाय ख़त्म हो चुकी है..हमने पी ली,पर हमे याद नहीं क्योंकि हम वर्तमान के प्रति ,चाय पीने के प्रति सजग नहीं थे...."जिंदगी भी चाय के उस कप की तरह ही है..."
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