Kiran Yadav  
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Joined 19 June 2018


Joined 19 June 2018
28 JUL 2023 AT 20:21

बड़े फ़ख्र से कहते हम जीवों से हमें प्यार है
शब्दों से भला प्यार का क्या सरोकार है
हवस और हिंसा इंसानों की फितरत है
पशुवों की तो सिर्फ भूख ही ज़रूरत है
बोल नहीं सकता फिर भी ईमान रखता है
इंसानों सा नहीं अंजाम रखता है
बेज़ुबान है अनभिज्ञ अंजान है
गनीमत है नहीं ये इंसान है
कृतिमता ने दृगो को भ्रमित किया है
प्रकृति के सौंदर्य से विविक्त किया है
खुद ही बंधन बनाते खुद ही तोड़ जाते हैं
खुद से बनाए सिद्धांत खुद ही नहीं निभा पाते हैं
महि के ह्रदय में अनेकों योनियाँ बसती हैं
जाने क्यों उनकी रमणीयता हमें नहीं दिखती है

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28 FEB 2022 AT 14:31

आतीत की परछाइयाँ पीछा नहीं छोड़ती हैं
भ्रम जब भी होता है उन्हें भूलने का
आगे मोड़ पर सहसा ही टकरा जाती हैं
किताब के पन्ने जब खोलती हूँ
सूखे गुलाब की पंखुड़ियाँ आज भी
अपनी खुशबू से मुझे महका जाती हैं

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2 AUG 2021 AT 18:42

✒️कलम ✒️ मंझी हुई लेखिका तो नहीं मैं
पर कलम राहत देती है
ज़ज़्बातों को शब्द और
शब्दों को आशय देती है
जब सताता है दिल को खालीपन
तन्हाई ने जकड़ रखा हो दामन
एकाकी चित्त को आश्रय देती है
जब जुबाँ चुप होने लगे किसी की आस में
समझ सके जज्बातों को वो साया न हो पास में
बंद डायरी के पन्नों पर जीने की वजह देती है
कलम राहत देती है
Kiran Yadav

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26 JUL 2021 AT 13:35

🌹समझौता🌹 यूँ ही जिए जा रही थी
समझौता किये जा रही थी
ज़िन्दगी से नाराजगी बहुत थी
दिन रात उसे कोसे जा रही थी
जाने क्या था उसके मन में
मुझे देख मुस्कुरा रही थी
मैने पूछा बड़ी खुश हो मुझे ऐसे देखकर
इसीलिए कहर बरपा रही थी
उसने बड़े इत्मीनान से कहा
मैं तो बस मुस्कुराने की कीमत समझा रही थी
तू समझी ही नही पगली
मैं तो तुझे जीना सिखा रही थी

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16 JUN 2021 AT 18:37

वो भी क्या दौर था
फसाना कुछ और था
तारों भरी रात थी तो
सुबह पंक्षियों का शोर था
कोयल गाती थी ऑंगन में
बागों में नाचता मोर था
न जिम्मेदारी का बोझ था
न चिंताओं का जोर था
हर मौसम सावन भादों
खुशियों का बसेरा चहुँ ओर था
कटी पतंग सा मन
उड़ता बिन मांझा बिन डोर था
मैं तो वही हूँ पंछी नदिया भी वही है
बस वक़्त कुछ और है वो वक़्त कुछ और था
वो भी क्या दौर था...
Kiran Yadav







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4 MAY 2021 AT 13:13

माना मुश्किल घड़ी है विपदाओं का जोर है
रास्ते अनजान हैं अँधियारा घनघोर है
त्राहि त्राहि मची है चहुँ दिशाओं में
भयभीत है हर काया लाशों का भी न ठौर है
व्याकुलता है वेदना है खौफनाक है मंजर
बदला बदला है मौसम हवाओं का रुख कुछ और है
हौसला न छूटने पाए साहस न टूटने पाए
तेरे हिफाज़त की ये ही मजबूत डोर है
बस एक रात भर का है फासला
तिमिर के पार एक सुहानी भोर है
अति दोहन ने धरती को कर डाला निर्जर
स्वार्थवश कुंठित हुआ अब तक किया न गौर है
रोती है धरती माँ तब बढ़ता है प्रकोप
दाम चुकाना पड़ता न चलता कोई जोर है
वक्त रहते सुधर जाएं वैभव धरा का लौटाएं
छट जाएंगी वो घटाएं काली फैली जो हर ओर हैं
Kiran Yadav





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2 APR 2021 AT 0:08

कौन निकालेगा हल इस कश्मकश का
कौन लेगा फैसला सही और गलत का
गर मैं गलत तो सही तू भी तो नहीं
गर भरा है समंदर तो सूखी नदी भी तो नहीं
कौन देगा हौसला इस ग़फ़लत का
कौन लेगा फैसला सही और गलत का
तेरे हितों का वास्ता मुझसे है जब तक
मेरे ऐब में भी हुनर छलके है तब तक
कौन दिखाएगा आईना असलियत का
कौन लेगा फैसला सही और गलत का
सही गलत के दरमियाँ गर स्वार्थ न होता
कुशाघात फिर उसूलों के हाथ न होता
कौन बजाएगा बिगुल ज़ज़्बातों की अहमियत का
कौन लेगा फैसला सही और गलत का
Kiran yadav




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25 MAR 2021 AT 0:03

बड़ा खौफनाक मंजर है बड़ा ही विनाशकारी
संवेदनाएँ मिट रहीं वेदनाएँ बढ़ रही हैं
झूठी हसीं खूबसूरत चेहरे पे सजा रखी है सभी ने
दर्द भरी एक सुई सीने में छुपा रखी है सभी ने
भौतिकता में जी रहे वास्तविकता में रो रहे हैं
पाना चाहता है जिसे खोता जा रहा उसी को
जो खुद विचलित है सुकूँ देगा वो क्या किसी को
स्थिरता घट रही विकलता बढ़ रही है
एक रेखा अहम् ने खींच रखी है दरमियाँ
बन बैठें हैं खुद के बैरी तो क्यूँ बनाएँगे आशियाँ
संस्कार दम तोड़ रहे अहंकार फल रहे हैं
दम तोड़ देती हैं अभिलाषाएँ प्रथाओं की कैद में
जिंदा लाशें आह भरतीं अनचाहे रास्ते मुस्तैद में
देह जल रही नेह घुट रही है
एक इशारा भर चाहिए किसी को कोसने को
बैठें हैँ यहाँ सभी दूसरों को दोष देने को
इंसानियत मिट रही हैवानियत बढ़ रही है
Kiran yadav




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21 FEB 2021 AT 15:54

सजग, सफल, सक्षम व हितकारी हो
गर्व करो खुद पर तुम नारी हो
हर साँचे में ढल जाती हो
कभी मोम सी पिघल जाती हो
तो कभी दिये सी जल जाती हो
करुणा का सागर, ईश्वर की प्यारी हो
गर्व करो खुद पर तुम नारी हो
है कौशल तुममें विष को पीयूष बनाने का
तुम तो एक नज़रिया हो जीवन को समझाने का
हो आधार जगत का, न बोध करो बेचारी हो
गर्व करो खुद पर तुम नारी हो
निमित्त हो पोषक हो इस सृष्टि की सृजनकर्ता
अबोध है गूढ़ है जो तेरा मूल्य नहीं समझता
अहंकारी अभिमानी और अत्याचारी है
खुद पर गर्व करो तुम नारी हो
हक है तुम्हें भी जीने का, अरमान कहीं न मुरझा जाए
देवी न सही कम से कम इंसान तुम्हे समझा जाए
तेरे प्रेम स्नेह ममता के तो परमपिता भी आभारी हैँ
खुद पर गर्व करो तुम नारी हो

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2 FEB 2021 AT 10:03

कदम बढ़ते रहे, रास्ता मिलता गया
लोग जुड़ते गए और कारवाँ बनता गया
आसाँ नहीं था यूँ समंदर के पार जाना
कस्तियों की हठ थी लहरों से टकराती गई और तूफाँ झुकता गया
जुल्म था इस अँधेरी रात का,इक घनेरी बरसात का
ऐसी लगन थी उस पखेरू की उड़ान में तिनके तिनके जोड़ती गई और घोंसला बनता गया
बोझिल सा था मन बढ़ गई थी उलझन
शौर्य था वानी में, शब्दों के मोती पिरोते गए और गीत बनता गया
उजड़ा ऑंचल सूना आँगन डर लागे देख के दर्पन
अनुरागी पौधे रोपे, आँचल से सींचते गए और गुलशन महकता गया
मूँद रखी थी रात ने चाँदनी इस शहर की
धधक रही थी आग सीने में, मशालें जलाते गए और अंधेरा मिटता गया

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