इक उदासी है जो बहुत गहरे भीतर तक.... पसरी हुई है बड़े सुकून से इत्मीनान से..... उसे आराम से पसरा देख अमूमन कुछ नहीं कहती.... पर कई बार झींझोड़ती,धकेलती हूँ खींचती हूँ ताकत से सुकून देखो उसका पड़ी रहती है गहरे, ऑंखें मूंदे अनसुना कर मुझको..... इक उदासी....
हुआ कितनी बार कि जब-जब दुखों से घिरा पाया स्वयं को कुछ भी करने में असमर्थ पाया स्वयं को दिखते हैं मेरे लिए,प्रार्थना में उठे तेरे हाथ आँचल के कोने में मनौती की बँधी गांठ और प्रेम,विश्वास,श्रद्धा से भरा तुम्हारा साथ माँ...... तुम बहुत याद आती हो......
उन्होंने समझाया और बताया लचक जाना, झुक जाना रिश्तों को है ग़र बचाना...... सुनो, घास को है पूछना रिश्तों के इस जंगल में वो,और कितना लचके कितना झुक जाए...... सोच, समझ... उसे भी बताना.....
आप अच्छे हैं अच्छी बात है... पर जब आप "श्रेष्ठ" समझने लगते हैं स्वयं को और आंकने लगते हैं सामने वाले को कमतर..... तब..... आपको नहीं लगता आपकी "श्रेष्ठता औंधे-मुँह पड़ी होती है.... भीतर ही भीतर कहीं.... सुनो.... "अच्छाई, श्रेणीबद्ध नहीं होती कभी"...