बचपन का एक ख़्वाब
आज भी रखा है सिरहाने
कुछ ज़र्द
कुछ मुड़ा तुड़ा सा
ज्यादा कुछ नहीं
तितलियों से पंख लगाकर
उड़ने का छोटा सा
इक ख्वाब था बस...-
मेरे घर की मुंडेर पर दाना चुगने
एक गोरैया आती थी और
एक कबूतर भी..
कबूतर चुपचाप
दाना चुग कर शान से गर्दन
फुलाए घूमता था..
गौरैया एक दाना चुगकर
साथी को आवाज़ लगाती..
फिर एक दाना चुगती
फिर आवाज़ लगाती
तब तक पुकारती
जब तक साथी ना आ जाए
जानते हो क्यूँ...
क्यूंकि गोरैया में एक स्त्री थी !-
गीली माटी सरीखा प्रेम ठहरा,
किसी के लिए कीचड़,
किसी के लिए ईश्वर की मूरत ठहरा ||
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उन्हीं यादों को सहेजिए,
जो आँखों में चमक पैदा करें !
उन्हें नहीं...
जो चेहरे पर शिकन पैदा करें !-
सब कुछ सही तो दिखता है
और सही है भी
लेकिन खालीपन भी तो है
भीतर
जो बहुत गहरा होता जा रहा है
दिनोंदिन ।
संवेदनाओं का
भावनाओं का
ज्वार
मन को मथता ही रहता है
निरन्तर..
और मैं निर्विकार सी
डूबती उतराती रहती
हूँ
यही सोचकर
की सब कुछ
सही ही तो है ।
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जो खो गए थे
वक़्त की दहलीज़ पर
वही दृश्य सामने आ रहे हैं
प्रकृति अपने रूप यौवन
की चतुर्दिक
छटा बिखेर रही है ।-
संवेदनशील हूँ
इसकी कीमत भी चुकाती हूँ
दूसरों को समझते समझते
अपना निज भी भूल जाती हूं।
सरलता और निच्छलता,
नहीं चलते अब इस जमाने मे
यह जान कर फिर भी
सभी को अपनाती जाती हूं।
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