मुझे तो इस चंचल नदी की तरह ,
बहते हुए दूर तक चले जाना था ,
मैंने कभी नहीं चाहा था ,
इस पर्वत सा कठोर हो जाना ,
पर्वत जो सदियों तक बना रहेगा और सहता रहेगा ,
हर मौसम को और हर रोज़ थोड़ा थोड़ा बिखरेगा ,
फिर भी कभी पूरी तरह ख़त्म नहीं हो पाएगा,
मैंने चाहा था उस नदी की तरह एक विशाल समुद्र में खो जाना ,
जहाँ मुझे ध्यान न रह जाए मेरे होने का ,
और ख़त्म हो जाए किसी भी किनारे को पाने की इच्छा ,
जहाँ मैं नदी की तरह मुक्त हो जाऊँ हर सीमा से हर बंधन से,
मैंने नहीं चुना था सहना यातनाएं उस कठोर पर्वत की तरह ,
मुझे मुक्ति को प्राप्त करना था उस नदी सा बहते हुए ।-
क्योंकि लिखना मेरा शौक नहीं आदत है...💫
Someday we will just give up on love,
We will deny every emotion
and wipe every tear with a slight shove
Today we are dropping the veil of kindness and trust,
Our heart is absorbing pain and soon it will burst
Stars will stop shining and flowers will not bloom anymore
a little kid will still smile but there will be no one to adore
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गिले-शिकवों से कर किनारा
हर रंज अब मिटा देना
और चिंता को अंजुरी में भर
इक फूँक से उड़ा देना
(अनुशीर्षक में पढ़ें)
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धरा उद्विग्न हो उठी उस रोज़
अश्रु नभ के ना थमते थे
जल नदी का जैसे रक्त हुआ
हिम भी ज्वाला से जलते थे
दया-करुणा का शीश भी हुआ कलम
मानवता फूट कर रोती थी
जिस रोज़ साँझ में
अम्मा की प्यारी बिटिया ना लौटी थी
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होगा वही आसमां फिर, फिर से मेरा जहान वही होगा,
जो देखे है ख्वाब सभी , उन ख्वाबों का अंजाम वही होगा।
हाँ! वैसे ही फिर से दिन होंगे, होगी वैसी ही रात भी,
कोलाहल फिर से होगा सन्ध्या में और तुरत-फुरत प्रभात भी।
वो उँची खड़ी इमारतें,फिर से जीवंत हो जाएँगी,
और सूनी पड़ी सड़कें भी फिर से गीत पुराना गाएगी।
इन संकरी गलियों में फिर से मुस्कान वही होगी,
मंदिर में झंकार और मस्जिद में पाक अज़ान वही होगी।
वो नौनिहाल फिर से मैदानों में दौड़ लगाएँगे,
फिर से कागज़ की कश्ती संग वादे दरिया में छोड़े जाएँगे।
वैसी ही होगी दुनिया फिर से, होंगे वैसे ही जज़्बात भी,
वैसे ही फिर से दिन होंगे और होगी वैसी ही रात भी।
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क्या झेल पाएगा यह पृष्ठ इतने निर्मम दुख को?
दुख जो आहत कर दे मनुष्य की रूह को,
जो छीन ले सूर्य का ताप अंतिम अंश तक,
जो चंद्रमा की रोशनी को परिवर्तित कर दे अंधकार में,
जो बेरंग कर दे बहार का हर पुष्प,
जो बर्फ-सा जमा दे हर आँख का अश्रु,
दुख जो जीवन को भी मृत्यु तुल्य बना दे,
क्या इतने दुख का बोझ उठा पाएगा यह पृष्ठ?
(अनुशीर्षक में पढें)
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सीधा पढ़कर उल्टा बिसराए ,"अध जल गगरी छलकत जाए"
नभ का भेद ना जाने हम ,और ना ही ज्ञान धरा का है
"सिध्दांतवाद" की बातें छोड़ो ,यहाँ तो मूढ़ लहराते पताका है।
प्रश्नों का भेद हम समझ ना पाते ,मस्तिष्क भ्रान्तियों से अटा रहे
कोई कितना भी उत्तम समझाए ,मौजी मन बस खुद पर डटा रहे।
पैबंद लगी ज्ञान की चादर ओढ़े ,है सब इस समर में खड़े हुए
हर तर्क पर उन्माद मचा रहे
अरे देखो!
"कैसे हम चिकने घड़े हुए"।
थोड़ा कुछ तो हमें ज्ञात है ,और शेष हम सुन ना पाए
हम सीधा पढ़कर उल्टा बिसराए ,"अध जल गगरी छलकत जाए"।
-खुशी पारीक
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यह "नन्हे मूक जीव" इस धरती पर शेष प्रेम के सबसे पहले अधिकारी है।
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I think that the "Human Devil" is succeeding in his ruthless aim,
and i am sure after a few decades there will be no humanity to claim.
(Read the caption)
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