उम्र अब क़तरा क़तरा गुज़रने लगी है
जिंदगी अब ज़ख्मों को और कुतरने लगी है
खुश था मैं जब न कोई मेरा हाल पूछता था
अब क्यों दुनिया दुआ सलाम करने लगी है
बरसों भीड़ में भी तन्हा काटी है जिंदगी मैंने
अब तन्हाई में भी दीवारें शोर भरने लगी है
एक मंज़र जो मैं दिल से भुला देना चाहता हूं
कमबख़्त याद उसी मंज़र पे ठहरने लगी है
न जाने कितनी रातों से चैन से सोया नहीं हूं मैं
नींद अब आंखों में आने से पहले मरने लगी है
जान तो मेरी तेरे साथ ही चली गई थी ’अंश’
अब तो बस सांस हैं जो बिखरने लगी है-
इश्क़ करने में तो बईमानी न कर
इतनी भी तू अपनी मनमानी न कर
बस दिल की सुनी और तुझसे मोहब्बत कर बैठे
दिमाग़ तो कह रहा था के ये नादानी न कर-
वो कहते हैं हम अब मुस्कुराने लगे हैं
कैसे बताएं किन ग़मों को छुपाने लगे हैं
भूलने की कोशिश में जो ज़्यादा याद आते हैं
हम उन्हें अब और ज़्यादा भुलाने लगे हैं
दोस्तों मत छेड़ो फिर मेरे ज़ख्मों को तुम
एक एक ज़ख्म को भरने में ज़माने लगे हैं
कभी था जहाँ अपना रोशन आशियाँ
आज वहाँ अंधेरों के वीराने लगे हैं
वफ़ा के नाम पर हम पल पल मरते रहे
लोग तुमको मिसाल-ए-वफ़ा बताने लगे हैं-
भुला न पाया मैं तुझे तस्वीर तेरी जलाकर भी
न इश्क़ कम होता दिखे तुझे दिल से मिटा कर भी
यूं हुए हम दोनों के दरमियां कम्बख़त ये फ़ासले
मुझमें ही कहीं रह गया तू मुझसे दूर जा कर भी
इस कदर टूट कर अब टुकड़ों में बिखरा हूँ मैं
क्या समेटेगा तू मुझे अब ये टुकड़े उठा कर भी
परिंदों के आशियाने फिर पहले से नहीं बनते
चाहे कितना देख लो तिनकों को सज़ा कर भी
इम्तिहाँ मेरा लेने की तेरे दिल को बड़ी ख्वाहिश थी
मुतमइन क्यों न नज़र आये तू मुझे आज़मा कर भी
चुपचाप मैं देखता रहा दूर से यूँ ही तुझे जाते हुए
होता भी क्या उस वक़्त आवाज़ तुझे लगा कर भी
ख़ुशनसीब है जिसको रास आया इश्क़ यूँ जीते जी
हमें तो बस तन्हाईयाँ मिली अपने को मिटा कर भी-
कोई नज़रों से कोई दिल से उतर जाता है
आदमी अपने ही वायदे से मुकर जाता है
बस ख़्वाहिश है कोई मिरे भी पास बैठे
वैसे ये वक़्त तो तन्हा भी गुज़र जाता है
अब दिल पर भी कोई ज़ोर मिरा नहीं चलता
जहां ख़ुशी नहीं मिलती ये उधर जाता है
जाने किस बात पर चाँद ख़फ़ा शम्मा से है
लौ जलती नहीं की उसका मुंह उतर जाता है
इश्क़ करना भूले तो लिखना आ गया 'अंश'
इक हुनर आता है तो इक हुनर जाता है-
लरज़ते लबों से तेरा वो गुनगुनाना याद है
मिलने पर नज़रें मुझसे तेरा मुस्कुराना याद है
जाने कितनी ही बार क़त्ल हुए तेरी अदाओं से
तेरी हर अदा पर साँसों का रुक जाना याद है
पहरों तुझे देखते हुए यूँ ही गुज़रते थे दिन मिरे
तेरे ख़यालों में ग़ुम हो ख़ुद को भूल जाना याद है
अपने ही घर का पता पूछता फिरता था लोगों से
पर जहाँ मिलता था तुझसे वो ठिकाना याद है
नहीं रखता मैं वास्ता कोई वाईज़ों से यहाँ
और तेरा सुनाया हुआ हर फ़साना याद है-
छोटी सी ज़िन्दगी के पल चार लिए बैठा था
बंद मुट्ठी में ख़्वाहिशें हज़ार लिए बैठा था
मुफ़लिसी में गुज़र गए उसके रात-ओ-दिन
लेकिन वो ख़ुदा को कर्ज़दार किये बैठा था
खुशियाँ अपनी नीलाम कर ग़म ख़रीद लाया
मालूम होता है वो बीच बाज़ार पिये बैठा था
ग़म-ए-दौरां में जीने का सलीका था उसको
इश्क़ में दिल को कहीं ज़ार ज़ार किये बैठा था
सूखी ज़मीं पर न होगी अब कभी बरसात 'अंश'
और वो आंखों में बूंदों का इंतज़ार लिए बैठा था-
साजिशों की बू अब रिश्तों से आने लगी है
अपने ही दीये की लौ घर को जलाने लगी है
जुगनुओं की टिमटिमाहट स्याह रात से लड़ेगी कब तक
अमा की कालिमा चांदनी को अब खाने लगी है
सुकूँ बेच आया दिन का वो रात की सेज के लिए
पर ख्वाब ऐसे टूटे के नींद आंखों से जाने लगी है
आबरू के तमगे छाती पर लिए घूमता था शान से
तोहमत ज़माने की अब कंधों को झुकाने लगी है
सुराख वाली कश्ती कहाँ पार कर पायेगी वारीश 'अंश'
के हर आती जाती लहर अब तुझे डुबाने लगी है-
तुम कब से अश्क़ बहाने लगे प्यार में?
तुम्हें तो हँसी आती थी वफ़ा के नाम पर..-
नीलामी में बिकी किसी चीज़ सा हो गया हूं
ज़माने की नज़र में एहमियत है इज़्ज़त नही-