छोटा सा बंदर
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बाज़ार से गुज़रा हूँ खरीदार नहीं हूँ
-अकबर इलाहा... read more
Instead of years, I live in kilometers traveled, stories exchanged, and realities challenged.
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छिटक कर गिर पड़ी तकिये के कोने से
जो रात सिरहाने पे रखकर भूल गया था मैं-
"That's the only rule. You can scream or shout, mock or abuse, just can't speak to anyone."
"Okay. Can I atleast listen then?"
"You can try. But amongst the screaming and shouting, the mockery and the abuses, I don't think that's a wise choice."
"How about I don't do anything and just sit like a piece of furniture."
"Sorry, but that's my role as the Parliament Speaker."
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किसी और का दुःख कभी, अपना समझ के सुना है क्या?
किसी बिखरे हुए को टुकड़ा दर टुकड़ा चुना है क्या?
ख़ुद के सपनों में तो रातें कई गुजा़री होंगी
कभी किसी और की ख़ातिर, कोई ख़्वाब बुना है क्या?
ये कैसी शर्मिंदगी सी पसरी है, इन अँधेरी गलियों में?
यहाँ भी बेटियों का रात में बाहर जाना मना है क्या?
सभी चेहरे यहाँ पर खिलखिलाते - मुस्कुराते हैं,
तेरे शहर में "खा़लिस", रोना मना है क्या?
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कुछ ऐसे जज़्बात भी होते हैं,
जिन्हें चाहकर भी कलमकार
नहीं लिख पाते
कविताओं, कहानियों या नज़्मों में
ये बनते वो ख़त, जो लिखने के बाद
दफ़ना दिये जाते हैं
डायरी या किताब के पन्नों के बीच
या
अलमारी की सबसे ऊपर वाली दराज़ में, अखबार के नीचे
पर जलाये नहीं जाते
ऐसे खतों को कभी भी मुक्ति नहीं मिलती।-
जिसके झूठे बेर थे खाए
उस शबरी को जलाएँगे
नोच नोच कर, चीड़ फाड़कर
गोश्त उसीका खाएंगे
मारेंगे, घसीटेंगे, अंत तक उसे
मौत को हम तरसायेंगे
राम नहीं, सब रावण होंगे
ऐसा रामराज लाएंगे
फिर रामलला हम आएँगे
और मंदिर वहीं बनायेंगे-