इंसानों के इस भीड़ मे हमे अजब गज़ब किरदार मिले
मतलब के दोस्त यार तो मतलब के ही तलबगार मिले
इस दुनिया के 'अजायब' में बस जिस्मों का तमाशा है
बेचो रूह गर कोई, ज़माने भर में इसका ख़रीदार मिले-
ख़्वाब ओ ख़्यालों मे वो, सताती रही रात भर
वक़्त बे-वक़्त याद उनकी आती रही रात भर
शायद इक मुद्दत से था उनको इसका इंतज़ार
अपने अंदाज़ मे वो इश्क़ लुटाती रही रात भर
'रक़्स' होता रहा, जाम पर जाम भी चलते रहे
बनके साक़ी वो महफ़िल सजाती रही रात भर
इश्क़ के धरती की प्यास, बुझाती रही रात भर
अठखेलियों के बारिशों मे, नहाती रही रात भर-
कुछ भी तो कम न हुए हैं, दर्द-ओ-अलम अभी
दुनिया में भरे हुए हैं जी ज़ुल्म-ओ-सितम अभी
मुसलसल बढ़ती ही जा रही हैं, हमारी मुसीबतें
शायद रहेगा जारी ख़ुदा का गज़ब सितम अभी-
A boy and a girl were playing together. The boy had a collection of marbles. The girl had some sweets with her.
The boy told the girl that he will give her all of his marbles in exchange of her sweets. The girl agreed.
The boy kept the biggest and most beautiful marble aside and gave the rest to the girl. The girl, however, gave him all her sweets as she had promised.
That night, the girl slept peacefully. But the boy couldn't sleep as he kept wondering if the girl had hidden some sweets from him the way he had hidden his best marble...-
ना दुआओं में रही वो बरकतें, नसीहतें और हिदायतें भी अब हराम हैं
मौकापरस्ती के ज़माने में जरूरतों के जुलूस हैं, मतलबों के सलाम हैं-
शायद अब भी दिल पे मेरा इख़्तियार बाक़ी है
शायद आज भी इश्क़ की सारी बहार बाक़ी है
जब भी वो आएंगे, होंगी मोहब्बत की बरसातें
शायद किसी के दिल को मेरा इंतेज़ार बाक़ी है
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ख़त्म हुआ अब 'अहदे-हिज्रो-विसाले-यार'
देखे हैं बहुत खेल इश्क़ के मेरे परवरदिगार
कहीं दिल न हो जाए तेरा फिर से बे-क़रार
कि यहां भी हम मिल रहे हैं आज बार-बार
जाते हैं लूट कितने लोग, हुसूल-ए-इश्क़ में
करना पड़ता है, अपने दामनों को तार-तार
बदलता ही रहता है मौसम जहाँ में रोज़ ही
कब किसको, हर वक़्त मिला है यहां बहार
इस बेवफ़ा के तग़ाफ़ुले-पैहम भी जरा देख
अब तो छोड़ 'तिलिस्म-ए-इश्क़ का इंतज़ार-
Us, human beings; shining by virtue of others (sun's) light and has a dark side which he never shows to anybody..!
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कभी देखा ना सुना ऐसा क़हर का मंज़र
है ख़ौफ़ में डूबा, हर एक शहर का मंज़र
गज़ब धूप की फैले लप्टें, शरर का मंज़र
जलते-झुलसाते हर एक शजर का मंज़र
क़ैदीयों के तरह हुआ हर बशर का मंज़र
सब अपने कर्मों, जुर्मोंके समर का मंज़र
मौत से लड़ें सब ये कैसा ग़दर का मंज़र
पुराने वो, भूले-बिसरे से सफ़र का मंज़र
देखो ये भी है 'कोरोना' के ही असर का मंजर
देखा न कभी ऐसा, ईद-ऊल-फितर का मंजर-
वक़्त ये आया है इस आशिक़ी की मंज़िल में
कि अब अपना दिल ही नहीं रहा इस दिल में
न अपने दिल की कहो ना ही दूसरों की सुनो
अजीब रंग यह भी देखा, तुम्हारी महफ़िल में
अब ख़ुदी कहूँ याकि इसे बेख़ुदी बताओ तुम
अपने आप ही चला आया, कू-ए-क़ातिल में
अंजाम-ए-इश्क़ ने, इस मर्तबे को पहुँचाया है
अब रहा न फ़र्क़ कोई, राह में और मंज़िल में
अब कोई मुझे, परवाना कहे तो कोई दीवाना
मुझको करो शुमार, आशिक़ान-ए-कामिल में-