फिर भी ना जाने क्यों हर लम्हा लगता बेवक्त है,
हैं तो सही, हम सब एक दूसरे के काफ़ी क़रीब,
फिर भी ना जाने क्यों हर उस सक्श से काफी दूर हैं।
हो गए हैं हम इन अज़ीब बक्सों मे क़ैद,
कोष्ठ है ढेरों वहां, रहस्य भरी पोटलियां भी खूब,
जहां पूरी दुनिया तो सीमित है, पर अपने ही हैं कहीं गुम।
कहते हैं, इन बक्सों को सब पता है,
खुद को धुंडना हो, तो वह रास्ता भी उसी में पड़ा है।
पर मेरी एक गुज़ारिश है, उन बक्सों में कैद परिंदों से,
भिर की इन शोर में, खुदको भले तुरंत ना धुंड पाओं तुम,
पर कुछ वक्त निकाल, उनसे हाल ज़रूर पूछ लेना तुम,
जो पास खड़े हों, 'करीब' सभी।
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