मैं चरखा हूँ...
मैं सुतो की कात हूँ , मैं नरमी की बात हूँ ,
मैं उभरती जज्बात हूँ , मैं अमर यन्त्र सात हूँ ,
मैं बापू की शस्त्र हूँ , मैं आज़ादी की वस्त्र हूँ ,
मैं अहिंसा की प्रतीक हूँ , मैं सुन्दर और निक हूँ ,
मैं गति की परिभाषा हूँ , मैं निरंतरता की आशा हूँ ,
मैं सत्य का पुजारी हूँ , मैं रुई की आभारी हूँ ,
मैं धर्म की गाथा हूँ , मैं स्वाबलंबन की कथा हूँ ,
मैं लाल सी बहादुर हूँ , मैं स्वतंत्रता के लिए आतुर हूँ ,
मैं एकता की चित्र हूँ , दिखने में थोड़ी विचित्र हूँ ,
कितना भी मैं कहूँ स्वयं के बारे में ,
किन्तु सत्य यह है कि ,
मैं खादी की बरखा हूँ ,
हां , मैं चरखा हूँ ।।
हां , मैं चरखा हूँ ।।-
है; बदलते देखे मैने
दुनिया के हर लोग,
नही देखा तो बस यही
वीरो मे वो जोश...।
भारत भूमि को, देश के वीर;
अपनी माँ समझते हैं,
माँ की रक्षा के लिए,
प्राण तक न्यौक्षावर कर देते है...।
माँ - बाप, वो गलियाँ छोड़ आये,
देश की रक्षा के लिए ....
वो खुशियाँ छोड़ आये,
जहाँ जन्म हुआ उसे छोड़कर
अपना कर्म निभाते है,
माँ भारती के वीर सपूत ,
अपना धर्म निभाते है ।
हर कदम पर, जहाँ प्यार खिला है,
देश के लिए जान दिया है;
मिट्टी की कण - कण , मेरे देश की है यारो,
क्योकि यहाँ हर कदम पर वीरो ने बलिदान दिया है ।
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हम जैसे पैदा होते हैं , शायद वो भी वैसे ही पैदा होते हैं ,
और हे भगवान ! सकल भी तो हम जैसी ही है ।
फिर हम इंसान और वो किन्नर कैसे ?
शायद हमारे समाज से ।
हाँ वो हमारे समाज का ही हिस्सा है ,
हाँ वो किन्नर है ।।
उसके हद से ज्यादा मेक अप से उसके
चेहरे की परेशानियां ढक जाती हैं ,
उसके आंखों में लगे काजल उसके
आंसूओं को बाहर नही आने देते ,
हाँ वो भी प्रेम करती है ,
हाँ वो किन्नर है ।।
जो आशीर्वाद उसे नही मिला वो दूसरों को देती है ,
उसके पास माँ की ममता और पिता का प्यार भी है ,
तो वो स्त्री पुरुष दोनों से ऊपर हुई न ?
वो माँ , बहन , पिता और भाई भी है ,
वही शिखंडी , मोहिनी और अर्धनरेश्वर है ,
हाँ वो किन्नर है ।
हाँ वो किन्नर है ।।
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हाँ वो किन्नर है
वो सुंदर है ,
और हो भी क्यों न ?
आखिर ईश्वर ने उसे जाती - पाती , स्त्री - पुरुष से दूर रखा है ,
हाँ वो भी इंसान ही है ,
हाँ वो किन्नर है ।।
वो भी कभी अवसाद में जाती होगी...या होगा ?
फिर अपनी तालियों की जोर जोर आवाज सुन वापस लौट आती होगी ।
शायद भगवान ने उसे दुख से दूर रखा है...है ना !
हमे देख के तो ऐसा ही लगता है ।
हाँ वो इसी दुनिया मे रहती है ,
हाँ वो किन्नर है ।।
शायद उसके मोटे मोटे बिंदियों के पीछे उसके मन के घाव छुप जाते हैं ,
मांग की लालिमा को देख , बेचैनी उन से मुड़ जाते हैं ,
बेचैनी...! उन्हें भी होती है क्या ?
जब समाज से तिरस्कार मिलता होगा ।।
हाँ उनके भी माँ बाप है ,
हाँ वो किन्नर है ।।-
गरीब हूँ...
तुम जानते हो कि मैं गरीब हूँ ,
पैसा नही , किन्तु नही बदनसीब हूँ ,
अपने परिवार के कुछ ज्यादा ही करीब हूँ ,
तुम जानते हो कि मैं गरीब हूँ ।।
अपने परिवार का वर्तमान नही , अपितु नसीब हूँ ,
स्वाभिमानी हूँ , किन्तु नही ईब हूँ ,
वास्तविक हूँ , नही फरेब हूँ ,
तुम जानते हो कि मैं गरीब हूँ ।।
सब कुछ सलामत है तो खुशनसीब हूँ ,
कुटुंब में एकता है , प्रेमभावना है तो
नही बदनसीब हूँ ,
तुम जानते हो कि नही मैं गरीब हूँ ,
फिर भी तुम जानते हो कि मैं गरीब हूँ ।।
तुम जानते हो कि मैं गरीब हूँ ,
शायद इसलिये ईश्वर के करीब हूँ ,
इच्छा तो केवल है इतनी कि नही होऊँ बेघर ,
चाहिए दो वक्त की रोटी नही पिज़्ज़ा बर्गर ,
लेकर हथेली पे चलता अपना नसीब हूँ ,
फिर भी न जाने क्यूँ मैं "गरीब हूँ" ।।-
सुना है फरिश्ते आसमान से उतरते है ,
मैंने तो उसे पसीना पोछते खेतों में देखा है ।।-
जेवण झालं का ?
होय , मी तुम्हाला विचारत आहे ,
जेवण झालं का ?
तुमी आनंदी , सम्पन्न आणि स्वस्थ्य आहात ,
कुटुंबासंवेत दिवस घालवते मस्त आहात ,
तुमच्या शेजारी एक गरीबांचा धाम आहे ,
कधी विचारलं या देशबंदीच्या त्यांवर काय परिणाम आहे ?
असे आहेत काही स्वाभिमानी लोक ज्यांचे छप्पर आहेत ,
पण बेरोजगारीमुळे ते श्रीमंत नाही ,
आज मी तुम्हाला विचारात आहे ,
उद्या आपण त्यांना विचारा ,
जेवण झालं का ?-
लगता है आसमान के सितारे टूटने लगे हैं ,
वरना खुदा इतना भी बेरहम नही हो सकता ।-
हे काव्य का 'दिनकर' नमन तुम्हें ।।
तुमने ही 'रश्मिरथी' को पहचाना था ,
तुमने ही राष्ट्रवाद का महत्व जाना था ,
तुमने ही 'उर्वशी की हुंकार' सुनी थी ,
'परशुराम की प्रतीक्षा' की पुकार सुनी थी ,
हे काव्य का दिनकर नमन तुम्हें ।।
ओज , विद्रोह , आक्रोश , क्रांति , तुम्हारे ही तो स्तंभ हुए थे ,
कोमलता श्रृंगार भाव का तुम ने ही तो दंभ भरे थे ,
'कुरुक्षेत्र' के रण में जाकर काव्य महान रच डाला था ,
नेहरू समक्ष हिंदी बोल सभा सन्न कर डाला था ,
हे काव्य का 'दिनकर' नमन तुम्हें ।।
राष्ट्रवाद के सूर्य थे तुम राष्ट्रकवि पहचान थी ,
अन्याय भ्रष्टाचार की तुमसे धूमिल छवि अनजान थी ,
कई बार हुक्मरानों का तुमने मान सम्मान गिराया था ,
अन्याय काल जब आया तो 'सिंहासन खाली करवाया' था ,
हे काव्य के दिनकर नमन तुम्हें ,
हे काव्य के दिनकर नमन तुम्हें ।-
वो राजू ...
आंखों में सपने लिए ,
होठो पे मुस्कुराहट लिए ,
दिल में एक उम्मीद लिए ,
अर्धनग्न अवस्था में था ,
वो राजू ...
नंगे पांव और करनी में चाव था ,
भाषा और तेवर दोनों में ताव था ,
मटमैले बदन पे एक छोटा सा घाव था ,
नयनो के घी से दीपक जलाता ,
वो राजू ...
साहब , सेठ मुंह पे विराजमान थे ,
धरती की नींद लेकर सपना आसमान था ,
होठो पे मुस्कुराहट और दिल में सम्मान था ,
अपनी नन्हे हाथो से चाय बेचता ,
वो राजू ...
राजू उसका न वास्तविक नाम था ,
कुछ ठिकाना नही , न पता न गाम का ,
भविष्य की चिंता नही न भूत का मान था ,
कटु मधुर स्वर से चिल्लाता चाय चाय ,
वो राजू ...
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