नगरी-नगरी घूमें जोगन सुधबुध आप गँवाई के ।
मीरा प्रेम दिवानी भई कृष्ण नाम अपनाई के ।।
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हे केशव ! इन अपनों में भी, तुम ही सबसे... read more
तुम बाँट दो मेरी खुशियाँ मेरे अपनों के बीच
और दे दो मेरी तमाम उम्र मेरी माँ को
हे केशव ! कुछ ऐसा करो मेरे जीवन में
की मेरे सारे सुख मेरे पापा को मिल जाये
और मेरे सारे दुख मुझ तक ही सिमट आये...
(शेष अनुशीर्षक में...)-
इस मानव जीवन के लिये कुछ भी ऐसा नही है, जिसे हम हासिल करने की कोशिश करें और हासिल ना कर सकें
परंतु, कुछ इतना महत्वपूर्ण भी नही है की उसे ना हासिल कर पाने का विचार जीवन सीमा समाप्त करने पर विवश कर दे...-
।। जन्मभूमि ।।
सफलता को मुट्ठी में भरकर शहर से जब वापस आऊँ
तेरी मिट्टी को चुमकर मै अपने माथे पर तिलक लगाउँ
बसंती हवा के झोंके बन मेरे सर पर हाथ धरोगी क्या
बोलो मेरी जन्मभूमि, बचपन सा प्यार करोगी क्या...
( शेष अनुशीर्षक में...)
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अपनों से व्यथित मेरा मन अगर शब्दकोश के किसी शब्द पर ठहरता है...तो वह शब्द है "क्षमा"...
उनसे प्राप्त स्नेह और उपकार के समक्ष वैसे भी "क्षमा" का कोई विशेष आस्तित्व नही होता, परंतु फिर भी 'क्षमा' ही उनके प्रति हमारे मन को विशुद्ध रखता है।
हरे कृष्णा 🙏-
मेरी डायरी में कुछ ऐसे पन्नें भी हैं, जो बड़े गंदले से हैं
जिसपर लिखा हर एक शब्द बड़ा बेढंग नज़र आता है
"सोचती हूँ", निकाल दूँ इसे अपनी डायरी से
पर क्या करुँ, कुछ पन्नें इतने सुंदर भी है
जिसपर लिखा हर एक शब्द बड़ा बेदाग नज़र आता है
कही ऐसा ना हो की एक निकालु और सब बिखर जाए
फिर मेरी पूरी की पूरी डायरी दागदार नज़र आए।-
मेरे दिल ने जिसे चाहा, जिसे चाहा वो तुम न थे
यही वक़्त का सितम हैं, जो तुम हो, वो तुम न थे...
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एक निर्धारित सत्य की कविता,
जिसे जिंदगी के संघर्षों तले
हमेशा धुंधला ही पाया हैं
वहीं परम सत्य, जिसे पाकर...
समस्त इच्छाएँ व्यर्थ सी प्रतित होने लगती हैं
उस असीम प्रकाश में
विलीन हो जाने की कविता,
जिसके प्रकाश तले...
स्वयं के आस्तित्व का कोई अर्थ नही रह जाता है।
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सीमटी रही जो वक़्त के तह में, अबतक स्वच्छंद हुई नही जीवन में
वो प्रतीक्षा भले ही निराधार है, परंतु मेरे जीने का एकमात्र आधार है...
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सिंचित होता था जब कण-कण, तब कहाँ कोई मरुस्थल था ।
कब बूँद-बूँद को तरसा था, जब चहुँ ओर बस जल ही जल था ।।-