कितनी नाराज़गी .......ओर खुद से
दस्तुर् दुनिया का है कसूर खुद खुदा का भी तो नहीं-
असली मजा है अंजान बनकर जीने मे
बो रहें , रहें भी सलामत फिर रहे चाहे दूरियों में ही सही
मैंने देखी है बो महोब्बत भी जिंदा जिनके मेहबूब हरकत में नहीं
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तुझे दूर से चाहने जिद्द में गुजर् कर बख़्त भी कितना ही गुजर् गया
हम थोड़े कमजोर क्या हुए इस महोब्बत में , तेरी खुशबु का असर ही धुंधला पड़ गया-
कसूर मेरी महोब्बत का था जो तुम्हें अपना समझते थे
रहकर इस दुनियादारी से दूर दुनिया सिर्फ तुझे समझते थे-
हम बो बादल हैं जो अपनी ज़मीं की हरियाली के लिए बरस गए
मगर दूरियों का सिन्सिला युहीं जारी रहा और एक मुलाकात के लिए तरस गए हम-
अक्सर रास्ता दिखाने बाले मुसाफिर ही हमसफर बन जाया करते हैं
और हमसफर जो रूठ जाए तो सफर रुक जाया करते हैं-
शिक्षा ही बो दबाई थी जिसने देश से छोटी सोच की बीमारी लगभग मिटा दी थी
मगर बदनसीबी देखो इस देश की दन्गेबाजो (देशद्रोहि) ने दबाई की फैक्टरी (दिल्ली स्कूल) में ही आग लगा दी-
अभी तो ओर जीना है
जो खुशी तेरे लिए सम्भाल रखी थी उसका रस किसी और संग पीना है-
सफर अंजान राहों का रंग लाएगा जरूर
मिलेगा कोई मुसाफिर जो तुम्हें भाएगा जरूर-
चिल्लाती रही दुनिया मगर किसी की वातों में ना आए
सीने से लगाई है मरी हुई महोब्बत के ज़नाजज़ा निकाल ना पाए-