Kavi Samrendra upadhyay   (कवि समरेन्द्र उपाध्याय)
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Joined 1 July 2020


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Joined 1 July 2020

रंज ओ ग़म मातम ए दुनियां को अलविदा करके,
लौट आया हूं मैं दुनियां की खुशमिजाज़ी में,,

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मुझे पढ़कर वो मेरी तर्जुमानी कर रहा है,
आज फ़िर से वो मुझपर मेहरबानी कर रहा है,,
मेरी हसरत है मुझे अब तो वो समझ जाए,
एक अरसे से जो मेरी कहानी पढ़ रहा है,,

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21 JAN AT 11:51

ज़िंदगी में मेरी ज़िंदगी खो गई,
ज़िंदगी ज़िंदगी से जुदा हो गई,,
ज़िंदगी ज़िंदगी में मिली एक दिन,
ज़िंदगी ज़िंदगी में फ़ना हो गई,,

ज़िंदगी का मुकम्मल बहाना लिए,
मौत से ही मुखातिब हुए आज तक,,
ज़िंदगी बेवफ़ा है पता तब चला,
मौत ने जब कहा चल मेरे हमसफर,,
नींद आई बहुत सो सका ना कभी,
मौत से ये कहानी नई हो गई,,

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कोई हमदम नहीं कोई भी सहारा ना मिला,
ज़िंदगी में कभी मौका भी दुबारा ना मिला,,
जिनके होने से फ़क़त शाह हो गए थे हम,
सिर पे जो हाथ था दुआ का दुबारा ना मिला,,
❣️❣️🙏🙏🥺🥺🙏🙏

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13 OCT 2024 AT 16:37

सखी हे सुंदर सुघर सयान श्याम नित धेनु चरावे हैं,

कनक कांति कुण्डल कानन में शोभा निरखि नयन में,,
मोर मुकुट पीतांबर धारी वेणु बजावे हैं,,

अंजन पूरित दृग पटु कटि पै वैजन्ती गल माला,
मधुर मधुप गुंजित धुन पै हरि गीत सुनावे हैं,,

नील सरोरुह नील गगन तर नील जमुन जल धारा,
यदुकुल नलिन दिनेश कन्हैया नेह निभावे हैं,,

अखिल कोटि नायक निखिलेश्वर लीलाधारी नायक,
सख्य भाव में दास चरन को भोग छकाते हैं,,

कवि समरेन्द्र उपाध्याय समर

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1 AUG 2024 AT 18:12

ज़िंदगी के इस सफ़र में साथ में निकले तो थें,
वो मुसाफ़िर हो गए हमको सहारा ना मिला,,

कवि समरेन्द्र उपाध्याय
' समर '

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19 JUL 2024 AT 13:29

दूषित वातावरण प्रदूषित जल का मान बढ़ा है,
आने वाले कल का मन में कल्पित स्वप्न गढ़ा है,,
असमय पत्तों का झड़ जाना वृक्षों का गिर जाना,
प्रकृति को लेकर अब मन में अन्तर्द्वंद्व छिड़ा है,,

मानसून का लोप हुआ है मेघों ने मुंह मोड़ा है,
चैत माह में कोयल की वाणी ने कुहकन छोड़ा है,,
आज पंछियों के कलरव से भोर नहीं होता है,
उषा निशा का भेद मिट गया निश्चित यह पीड़ा है,,
प्रकृति को लेकर अब मन में अन्तर्द्वंद्व छिड़ा है,,

मेघों को भी दूत बनाकर काम लिया जाता था,
पवन देव से आत्मजनों का कुशल लिया जाता है,,
पुष्पों का श्रृंगार वाटिका उपवन लुप्त हुए हैं,
शीतल मंद सुगन्ध पवन की सुंदर सी क्रीड़ा है,
प्रकृति को लेकर अब मन में अन्तर्द्वंद्व छिड़ा है,,

सूर्य देव का ताप धरा का तेजहीन हो जाना,
वसुधा ही जननी हैं सबकी मूलमंत्र अपनाना,,
लाखों वर्ष शेष है जीवन अभी अंत क्यों होगा,
कलियुग का आतंक देखकर मन में भय पीड़ा है,,
प्रकृति को लेकर अब मन में अन्तर्द्वंद्व छिड़ा है,,

प्रकृति से आस्तित्व हमारा प्रकृति से जीवन है,
भौतिकता से पूर्व सुखों का एकमात्र ही धन है,
पर्वत को अविचल रहने दो नदियों को अपनाओ,
स्नेह लेप दो ' समर ' धरा को बहुत सहीं पीड़ा हैं,,
प्रकृति को लेकर अब मन में अन्तर्द्वंद्व छिड़ा है,,
कवि समरेन्द्र उपाध्याय (समर)

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27 MAY 2024 AT 16:53

हमारे प्राण धन राघव मेरे मन में समा जाओ,
दयामय दीनवत्सल हरि मेरे मन में समा जाओ,,

सुना है ग्रंथ कहते हैं कि तुम दिनों के स्वामी हो,
निभाओ नेह का नाता मुझे अपना बना जाओ,,

तुम्हीं साकेत स्वामी हो तुम्हीं हो व्याप्त कण कण में,
करो करुणा नज़र थोड़ी हृदय मंदिर में आ जाओ,,

किया मर्दन दशानन का बनाया सेतु सागर पर,
पकड़ कर बांह भी मेरा प्रभु भव पार ले जाओ,,

किए कौतुक अनेकों राम के अवतार में राघव,
समर दृग में बिराजो प्रभु वो रामायण दिखा जाओ,,

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12 MAY 2024 AT 11:53

कल्पना में श्रेष्ठ है जग किन्तु वास्तव में नहीं,
भावना में बह रहा जग किन्तु शाश्वत है नहीं,,
आदि भी सूना पड़ा है मध्य भी अवसान है,
चेतना संकीर्ण होती जा रही जागृत नहीं,,

लीन है मन वासना में आत्मा फिर भी अनघ है,
प्रेम वह पाखण्ड है जिस नेह का आधार जग है,,
सत्य है आतप विकल कर दे रही इस देंह को,
जीव यदि निस्पृह रहे तो सर्वथा आनंद है,,

इस जगत में भावना के बोझ में दुःख व्याप्त है,
ज्ञान से वंचित है जो वह सत्पुरुष है आप्त है,,
पाप के संदर्भ में अब क्या कहें यह संचरण है,
नीति नियमों का प्रदर्शन सत्य है पर्याप्त है,,

सत्पुरुष,सदआचरण,सन्मार्ग अब व्यापार है,
धर्म के उपदेश में अब धर्म भी लाचार है,,
हम किसे धारण करें यह धर्म का उद्देश्य है,
हम जिसे धारण करें यह धर्म का संहार है,,

त्यागने पर त्याग का है दंभ भरता जा रहा,
स्वयं के आस्तित्व को उद्दीप्त करता जा रहा,,
देह को सुंदर बनाने में सभी उद्योगरत हैं,
देह है यदि पुण्य पावन, आत्मा का मोल क्या है,,

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3 APR 2024 AT 18:42

हसरत हो तसव्वुर में ये गुनाह नहीं,
ज़िंदगी बेहतरीन है तो बस खयालों में,,

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