अहिस्ता अहिस्ता सब ख्वाहिशे जल गयी
उम्र अभी हुई भी नही थी कि ढ़ल गयी
किसके जाने का दुख जिए किसका मलाल करे
मुट्ठी मे बस रेत थी, सो फिसल गयी
कल जिनसे खुशियां थी आज उनके आँसु है
अब क्या कहे, ज़िन्दगी थी बदल गयी
पल भर की हवा बेच रहे थे सौदागर बड़े बड़े
पल भर मे न जाने कितनी साँसे निकल गयी
किसीको बाप का गम किसीको माँ का मातम
'वो बस सो रहे' बोलकर बिटीया बहल गयी
कितना कुछ कहना था कितना कुछ समझाना था
अचानक वो बस यादें बनकर बोरे में सिल गयी
जिनके लिए न आग, न धरती की कोख हुई
उन लावारिस बच्चो को गंगा माँ निगल गयी
हे प्रभु! शरण दो,अब तुम ही उद्धार करो
नावँ हमारी कागज की दरिया उठते गल गयी
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जारी है....
जब अपने हर शौख को जिया जायेगा |
ज़हर हथेंली पर रखकर पिया जायेगा ||
गर जो बेची है हमने साहित्या की गरिमा |
तो बदले में उसको भी कुछ दिया जायेगा ||-
खुद को कुछ ऐसे देखो
जैसे मै देखता हुँ वैसे देखो
तुम खूबसूरत हो ये तुम जानती हो
फिर जो मर्जी करे आईना जैसे देखो
एक तेरी आवाज़ और कुछ मुलाकतें
इनके सिवा कुछ नही मेरे हिस्से देखो
तेरा मुस्कुराना दरियाओं में रवानगी है
हम डूबे बस निकलते है कैसे देखो
तेरी पलको का झुकना खंजर है कातिल
उसका क्या बचेगा तुम पलटकर जिसे देखो
तुम्हे मासूमियत देखनी हो करीब से अगर
बस चलो मेरे साथ और 'उसे' देखो
तेरी आँखो से भी छलकेगी मोहब्बत 'अमन' की
मेरी जान मेरी आँखो मे देखो मुझे देखो-
ख्वाबो मे सारे खूबसूरत वहम देकर
उसने कुछ न दिया सिवाय अहम देकर
अब हर जाम पर नाम उसी का है
जिसने सिगरेट छुडाई थी कसम देकर
उसकी यारी मे हिज्र है कभी तो कटेगा
जो रूह भी न दे सका मुझे जिस्म देकर
किमती खिलौना था और बाज़ार भी ऊँचे
मोहब्बत खरीदी थी मैने महँगी रकम देकर
मोहब्बत 'चाय' है होंठो पर देर तक घुलती है
'अमन' स्वाद नही बिगाडते वक्त कम देकर-
हाँ यह है अब कि सारे जहाँ में
धूम है हमारी भाषा की |
इसे बोलिये नही 'जी' लिजिये, यह
धूम है हमारी अभिलाषा की ||-
जिस भाषा मे मिलती मोहब्बत की खुशबू
उसे 'हिन्दी' ही नही 'सनम' बोलिये-
अखिरिश मिट्टी होती है मिट्टी की कहानी |
अधुरी मोहब्बत जवानी रवानी ||-
और अचानक एक दिन भागते भागते थक गया
तुम जहाँ छोड़कर गए, फिर वही रुक गया
रास्ते खत्म हो रहे थे, सब गुम हो रहा था
लोग मुझसे कहते रहे, कि मै राह भटक गया
उसकी नज़रें सब कहती, चुप रहती, निफ:शब्द!
उसने जिस जिस को पलटकर देखा बहक गया
मैने सभी यादोँ को ज़मीदोज करना ही था, कि
कोई अहिस्ता से आकर किताबों मे फूल रख गया
दरख्त से हिजरत पर मौसम की मार, कैसा जुल्म
फिर तो परिन्दा जिन बाजुओँ मे गया सिसक गया
'अमन' उसने खुले हाथों से दिया, बहुत दिया
क्या मस-अला जो किसीके हक़ का किसीके हक़ गया-