सुना हैं तौर-तरीके सिख रहा हैं वो इश्क़ के,
अरे उनसे कहो, ज़िन्दगी प्यारी नहीं हैं क्या?
और चैन -ए - सुकून नसीब नहीं यहाँ...
पुछो तो, उसको घर की जिम्मेदारी नहीं हैं क्या??
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मेरी अधूरी कहानी तू क्या जाने,
कितने घाव हैं और कितने गीले,
वो एक अकेला फ़ूल था मैं उस रास्ते पर,
ना जाने कितने इंकार मिले,
चेहरे के पिछे छुप जाते हैं अब दर्द मेरे,
हस के सहे हैं मैने इतने सिले,
ये दुनिया नाकाम हैं मुझे पहचानने में,
अरे, तुम तो फ़िर भी मुझे आज ही मिले...-
मेरी खिड़की से उसके घर का जंगला साफ़ दिखता है,
मुझे वो तो नहीं..! पर उसका कमरा साफ़ दिखता है!
न जाने कौन सी मिट्टी से ढाला है खुदाया ने,
उसके बदन पर मैला से मैला भी कपड़ा साफ़ दिखता हैं!
वो जिस जगहा खड़े होकर सुखाती बाल थी अपने,
वहां पर आज भी, बादल का पहरा साफ़ दिखता है !
यकीनन मेरी जानिब उसको थोड़ी तो मुहब्बत थी,
वो उसके आईने में मुझे सा लड़का साफ़ दिखाता है!
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मैं ही आग हूँ, तो राख भी मैं ही हूँ..
कभी धुल तो कभी खाक भी मैं ही हूँ..
तुम क्या पहचानोगे शख्सियत मेरी..
हकीकत हूँ मैं, और इत्तेफ़ाक भी मैं ही हूँ...-
कुछ दिन मशरुफ़ कर लेता हूँ,
ताकी रात आसान लगे,
मैं इतना निचे जा चूका हूँ,
कि धुंआ भी आसमान लगे..-
निगाहों मे तुम्हारे सिवा
कोई दूसरा बसर नहीं होता....
इश्क़ इतना तुमसे हो गया,
कि इश्क़ का मुझपे कोई असर नहीं होता...
खामोशी तुम्हारी जाने क्यु खलती हैं बहुत..
इससे बडा मरासिम मे कोई कहर नहीं होता..
कैसे समझाऊ तुम्हे
बातों की एहमियत रिश्तो में,
के ये मानिंद कोई अर्चिसा
बिना जिसके शहर नहीं होता...-
वो थी एक मंजिल ,
जो कभी मिली नहीं..
मैं राह-ए-सफ़र था,
तो चलता रहा..
वो थी शहर-ए-बाहार,
जो गुम थी कही..
मैं था आशिक चाँद का,
तो ढलता गया..
वो थी नदी कोई चंचल सी,
जो बहती रही और बहती ही रही,
मैं था समंदर गहरा सा,
जो अजमन्जस मे ठहरा रहा..
वो बुन्द थी एक ओस कि,
जो बाद-ए-धुन्ध दिखती रही..
मैं धुएँ सा फ़िजा मे था शमिल,
जो छटते ही कोहरा, मिटता गया...
वो खोल-ए-दिल मे थी माहिर ,
लगाकर दिल, भुला देती थी..
मैं मोहब्ब्त का मारा था एक पगाल,
जो अपना जन्नत उसे समझता रहा..-
तोड़ कर रिश्ता उसने
खुद से रिहाई दे दी ,
लब रहे खामोश पर
हर बात की सफ़ाई दे दी,
जाने वो कौन थे
जिन्हे इश्क़ के बदले इश्क़ मिला,
उसने नाम-ए-दिल कहा जरूर,
पर हर चिज़ हमे पराई दे दी...-
तुझे दुख हैं कि तुने आज कुछ किया नहीं,
अरे ओ जालीम,
उसका सोच जिसने चाह के भी
ज़िन्दगी को आज जिया नहीं..-
चलो उसकी कहानी सुनाता हूँ
मेरी अपनी ज़बानी सुनाता हूँ ,
उसका वो नादान बचपना ,
और अपनी बर्बाद जवानी सुनाता हूँ.
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