Everyday, we're fighting our own battles.
Hustling somehow, broken within
Alone in the sea of unknown.
Missing some part of us always,
Sometimes conscious about it,
Sometimes not.
Constructing steps of experiences,
Leading into the gateway of maturity.
Everyday, everyone is fighting his her own battle,
Wounded somehow by destiny.
Needed at such a time
Is a discipline,
To prevent us sinking into the abyss,
Derailing from the path of diligence.
We're all fighting our own battles,
And we've to take us out from it by selves.
There's no right person, there's no right time
Everything is us, and everything is now.-
माना कि समंदर थोड़ा गहरा है, डर जाएगा क्या?
लड़ने के लिए हुनर से ज़्यादा जिगरा चाहिए, अब लड़ जाएगा क्या :) ?-
उजाले की आड़ में छिपा एक अंधेरा
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टीवी के सामने बैठे-बैठे वह अपने छोटे हनुमान जी (उसकी अमूल्य मूर्ति) को कोस रहा था। 10 जून हो गई थी। कोटा जाने की यात्रा में सिर्फ एक दिन शेष था। 13 जून से उसकी क्लासेज़ शुरु होनी थी। पर सीट न कंफर्म हुई थी अभी। कुछ कदम दूर उसके पापा हाथ केलेंडर और पेंसिल ले कर अगले एक हफ्ते का खाका तैयार कर रहे थे। किस दिन कौन कौन से काम करने हैं एवं अपने मन में उमड़ी हर संभावना का उस बेचारे कैंलेडर पर ही खात्मा कर दे रहे थे।
उम्र की इस गुस्ताख़ी के लिए माफ़ी चाहूँगा, पर उसके पिता के पास एक पारलौकिक शक्ति थी। किसी भी बड़े काम से 10-15 दिन पहले वह एक आत्म ध्यान में लीन हो जाते थे, फिर चाहे वह कहीं की यात्रा हो या फिर रिश्तेदारी में कोई शादी। उस दौरान वह अपनी हर परिकल्पना को एक समस्या का रूप देकर उसका समाधान खोजने बैठ जाते थे। ऐसा नहीं हो सका तो क्या, वगैरह वगैरह। प्लान 'अ' नहीं काम कर सका तो क्या, उनकी वर्णमाला में कभी अक्षरों की कमी थोड़े ही रहती थी! पेशे से तो वह सरकारी नौकरी में थे, पर उनके काम मे कभी अधूरापन न झलकता था। इस लाइन के उन दिनों काफ़ी गूढ़ अर्थ हुआ करते थे।-
मत रुकना इस समंदर में मझधार ऐ मुसाफ़िर,
आखिर कहीं, तो तेरी कश्ती को किनारा मिलेगा।
तू देख कि कितनी और कश्तियाँ हैं तेरे पीछे अभी,
तेरे चलने से ही तो उनके हौसलों को सहारा मिलेगा।-
If in the rarest of my dreams, I find myself lucky to be the Mars of 'writing', then Transcendentalism would be my 'Venus' ... !
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My questions are still unanswered.
And answers are unsaid.
My childhood pleasures were gifts of 'Satan',
And 'Inferno' lies ahead...
Inferno, was the dream of Satan,
He wanted me destroyed !
He brought me gifts from the infinity of nature
Till fifteen years I was toyed.
It's crescendo went weak and weak,
The conscience although tried.
Tried to keep the child away,
From Satan's treacherous guide.
But as homicidal thoughts began quenching my sociopathy,
I found that my world was shaking.
The joys of yesterday's child were,
A 'homicider' in the making.
Thus that night I penned my last poem,
The 'step' was hard but right,
To my horror, I saw yards ahead,
Two fiery eyes in the night !
Those eyes were I thought I knew,
The mighty Satan was back,
He casted the spell of rebirth of my "Wrong",
While I urged for an attack.
Blitzkrieg ! I grabbed the sword,
In a second I slayed the head,
And with a deafening scream I fell headless,
As the ground bathed in red !
But some questions are still unanswered,
Some answers 'still' unsaid,
My childhood pleasures were Satan's gifts,
And Inferno lay ahead...-
चार महीनों के अंदर अंदर उसकी सारी मानसिकताएँ पलट चुकी थीं। सकारात्मकता की किताबी बातें अब उसके नकारात्मक यथार्थ से कोसों दूर हो चुकी थीं। चार महीनों पहले आसमान मे रहकर जमीन को खूबसूरत कहना शायद उसकी सबसे बड़ी भूल थी। ज़मीनी हकीकत तो यह थी कि यह जगह अमित जैसे उन तमाम लोगों के लिए थीं ही नहीं जो जिंदगी में मनोवैज्ञानिक उतार चढ़ाव के प्रति अति संवेदनशील होते हैं। यहाँ आपकी मेहनत, सामाजिक दायरा, एकाग्रता का घनत्व, परिणाम, परिश्रम, मनोयोग, वेबिनार या फिर हस्तलिखित लाइर्फ हैक्स.. कुछ भी मायने नहीं रखता । ये तो बस क्षणभंगुरता के कुछ मायावादी पहलू होते हैं, जो 'जिंदगी' नामक लंबी लड़ाई में सिर्फ अनुपूरक होते हैं । मायावादी ? क्योंकि ये सिर्फ हमें थोड़ी देर के लिए संतुष्ठता का आभास कराते हैं । कुछ समय बीत जाने के बाद ही हमें यह समझ आ जाता है कि ये सब सकारात्मक बातें सिर्फ एलीट क्लास कॉन्सेप्ट्स होती हैं । वास्तविकता की कटुता उस आभासी दुनिया से काफी भिन्न होती है । ऐसा नहीं है कि ये सब बातें करने वाले लोग झूठे होते हैं, पर सच यह है कि वे खुद भी उस कटु दुनिया से गुज़र चुके होते हैं । पर उनका हर किसी शख्स को यह ज्ञान की बातें बताते रहना अमूमन वैसा ही है जैसा किसी भिखारी को बताना कि दूसरा यूनिवर्स भी हो सकता है ! खैर ! अब काफी देर हो चुकी थी और अमित के पास समय और विकल्प काफी कम रह गये थे। (जारी है..)
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उसके चेहरे पर आज कोई भाव नहीं था। ललाट पर लकीरें नहीं थीं। और अंदर 'सिर्फ' एक सागर सिमटा हुआ था।
अनुभवों का सागर।
यातनाओं का सागर।
मानसिक आपदाओं का सागर।
एक सागर जिसकी हर बूँद सैंकड़ों विचारों का आगोश थी। एक सागर जो उसके 'आत्म' को लील चुका था। लील चुका था उसके अस्तित्व को भी। लील चुका था उन आखों को जो कभी सपने देखा करती थीं। अब तो बस पत्थरों के समान निश्चल रहतीं हैं वे।
और वो सपने ?
वो सपने आज एक अंधेरे की तह में अपना वजूद ढूँढते रहते हैं।
एक अंधेरा जो उसने खुद के अंदर समेट लिया था।
(To be continued...)-
जिस प्याले में पी थी कल 'कविराज' ने अंतिम मदिरा, उसी प्याले में आज फिर चार पंक्तियाँ जाम लाया हूँ।
हाँ Electrical के खेमे में CSE का जवाब सरेआम लाया हूँ।
वैसे अदब की दहलीज़ लाँघना हमारे अँगने में नहीं सिखाया जाता है,
पर जो लाँघा.. तो फिर शायद पूरे Electrical के लिए अंतिम 'इंतकाम' लाया हूँ ।-