अपनी किस्मत को भी अब क्या आजमाना छोड़ दें
या भवर के डर से ही कश्ती बनाना छोड़ दें
अपने हिस्से तीरगी है इसको ही सच मान के
हम हवा के डर से ही दीपक जलाना छोड़ दें
बेघरी ओ बेठिकाना ही तो मुस्तकबिल में है
सोच के बस ऐसा हम भी घर ही जाना छोड़ दें
जाबजा है शोर दर्द ओ गम का चारो ओर तो
दर्द के हो जायें हम और मुस्कुराना छोड़ दें
ताइरों के जैसे कौशिक जिंदगी आसां नहीं
इक सजर कट जाये तो फिर आशियाना छोड़ दें
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