KAUSHAL KISHOR PANDEY   (Kaushal Kishor Pandey)
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Joined 8 May 2018


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Joined 8 May 2018
3 MAY AT 21:29

नज़र का लगना भी,
एक शौक ए भरम होता है।
अगर कहीं न लगी ये ,
तो भी ग़म होता है ।

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28 APR AT 1:26

इतने करीब आ के भी यूं दूर हो गया ,
जब से हमारा यार कुछ मशहूर हो गया।

अपनी मुगालतों को सुनाता चला गया ,
मेरी न सुन सका वो यूं मगरूर हो गया।

क्या सोच के जज्बात मैंने उससे कह दिए ,
बस चंद घड़ी में ही वो काफूर हो गया।

रिश्ते सम्भाल रखे थे मैंने ही जतन से ,
हर रिश्ता उसके आईने से दूर हो गया।

हर शख्स उससे खास वजह से ही मिला है ,
उसके लिए हर शख़्स यूं नासूर हो गया।

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25 APR AT 0:14

प्राण रक्षा का निवेदन कर लिया होता अगर,
तो भी क्या कोई असर उन ज़ालिमों पर होना था ..
देखकर सूरत जिया करते थे प्रियजन जिन जनों की ,
क्या मरण उनके प्रियों का इनके ही सम्मुख होना था ...
करुण रस का मान इन घृणितों ने नश्वर कर दिया ,
वेदना को रौंद कर चित्कार से मन भर दिया ...
किस तरह पीड़ा को भीतर से भला कोई भुला दे ,
चीखती रह गई प्रिय , कि प्रीतम के ही संग मुझको सुला दे ...
निष्ठुरों ने साया बच्चों का , उन्हीं सामने सर से उठाया ,
बाप के कन्धों पर शव बेटों यूं का भारी चढ़ाया ..
कायर अपने कृत्य पर इस कदर क्यों इतरा रहे हैं ,
भाग कर चूहों के जैसे बिलों में छिप जा रहे हैं ..
पर समय आया है अब जब हर एक का इंसाफ होगा ,
भारतीय भू भाग इन नर - पिशाचों से साफ होगा..
सोच इनकी कुछ भी हो पर पनपने न पायेगी,
बिना पानी अन्न के प्राणों पर यूं बन आयेगी ...
बहुत दिन - दसकों तलक़ इनकी कहानी चल चुकी ,
अब किताब ए ज़ुल्म मिट्टी में दफ़न हो जायेगी...

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30 MAR AT 22:00

तेरे अश्कों की फ़िक्र बोल भला किसको है,
इनके दरिया में डूब जाने का सब्र किसको है ।
यूं ही चुपचाप पतंगा सा जले जाता है,
तेरे जलते हुए ज़ख्मों की कद्र किसको है।

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21 FEB AT 18:14

पिघलती जा रही है,
गुजरते वक्त की तपिश के साथ।

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14 FEB AT 22:32

मुझको इस शहर का बाज़ार यूं डराता है ,
हर सड़क पर गिरा इंसान नज़र आता है।
फूट पड़ते हैं देखते ही आंख से आंसू,
जीते जी जब कोई बेज़ार नज़र आता है ।
खुद की मुख़्तारी पर वो चीख चीखकर बोला,
क्या कोई मुझसे भी कददार नज़र आता है।
मेरे अपनों ने शिद्दतों से की रूस वाई मेरी ,
हर एक रिश्ता अब कम- जार नज़र आता है।

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14 FEB AT 21:59

कभी, कुछ जताया करो
भूल से ही याद आया करो ,
यूं तो हर शाम को चहचहाते हो तुम ,
कभी महफ़िल में मुझको बुलाया करो ।
मैं अकेला भी कम तो नहीं हूं मगर ,
चल सको साथ तो , आ भी जाया करो ।

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17 DEC 2024 AT 22:46

इतना आसान नहीं है खुद को यूं भुला देना,
राख में दहकती चिंगारियां दबा देना ।
रोज उठती हैं उमंगें उसे छू लेने को ,
कठिन होता है इन जज़्बातों को छुपा लेना।
मैं भी बहती सी हवाओं में ठहर जाती हूं ,
सोचती हूं , ये कि ऐ हवाओं मुझे बहा लेना ।
वो जिस तरह का है , वो इसी तरह ही क्यों है ,
पता लगे तो ...कोई मुझको भी बता देना ।
मेरे कुछ सपनों की ताबीरें अभी कच्ची हैं ,
बड़ा मुश्किल है इन्हें जिंदा यूं दफ़ना देना ।
इतना आसान नहीं.....

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14 SEP 2024 AT 22:38

अपने किरदार ये हाल बना रखा है,
बिस्तरों में कहीं कांटो को बिछा रखा है।
खूबसूरत ये छलावा बहुत ही दिलकश़ है,
दर्द को भी जरा खुशहाल बना रखा है ।

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14 SEP 2024 AT 22:32

उसकी चुभती हुई हर बात यूं दिल पर उतरी ,
तीर - तलवार और बावस्ता ए खंजर उतरी ...
महफिलें मशविरा देती रहीं की चुप हो जा ,
पर वो ख़ामोशी थीं जो रूप बदल के उतरी...

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