Kashish Kawrani   (Kashish)
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Joined 25 November 2017


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Joined 25 November 2017
9 FEB 2020 AT 22:10

फ़िक़्र नहीं उसकी जो चला जाएगा,
गिला होगा उस हिस्से से तेरे, जो रह जाएगा।
तेरा उलझना मुझ में धागों-सा,
मोतियों-सा तू मुझसे बिखरके रह जाएगा।।

जो हों तन्हा लम्हें हासिल हमको
तेरी यादें मुझसे मेरा माज़ी कह जाएगा।
शिक़वे हों सुल्फ़ों में धुआँ-धुआँ,
न हों अगर, तो ये रुका हुआ आँसू बह जाएगा।।

हक़ीक़त को तेरा होना जो घोल दे धोख़े में
वो तेरा होना बस एक धोख़ा हो के रह जाएगा।
न मुझ में तसल्ली, न तुझको क़रार,
तेरा-मेरा वक़्त साथ इमारतों-सा ढह जाएगा।।

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3 FEB 2020 AT 3:00

इश्क़ से इश्क़ की रुस्वाई है, मनाने न आ,
मेरी मोहब्बत को तूने बेवफ़ाई का सिला दिया है...
जिन अपनों को ग़ैर किया था तुझे अपनाने को मैंने,
आज उसी महफ़िल-ए-ग़ैर में ख़ुद तेरा गिला किया है।

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27 NOV 2019 AT 11:50

कुछ अलफ़ाज़ अपनी मुट्ठी में भींचे,
मैं आई थी इस शहर में बस इतना-सा सामान लिए।
तेरा न होना मुझे नीला-सा लगता है...
सावन की दोपहरी जैसे, मेरी क़लम की स्याही जैसे...
सुखद, लेकिन ग़मगीन।
शान्त, मगर बेहद तन्हा।
तेरे होने का रंग केसरी,
भोर की लालिमा ओढ़े सूरज की सौंधी ऊष्मा
जैसे एक अर्से की ठिठुरती रैन बाद खिली हो...
सुकून-देह और महफ़ूज़।
उन अलफ़ाज़ को जिसके हाथों में सोंपकर,
अपना राज़दार पाती हूँ।।

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13 OCT 2019 AT 2:02

बे-क़रारी में राख़ तेरा ही दिल नहीं है

आतिश में मसरूफ़ दोनों ही सर-ए-त'आल्लुक़ हैं।।

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5 OCT 2019 AT 16:25

इश्क़-ओ-मोहब्बत में जाने कैसे
लोग दुनिया-दारी निभा लेते हैं?
यहाँ तो तेरी उलफ़त का सुरूर ऐसा कि
रात को तकते-तकते, जाने कितने जाम बाद,
हम बेहोशी में आँखें मूंद लेते हैं...


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2 OCT 2019 AT 11:43

ज़माना सवाल करता है
कि आख़िर ग़मों की कौनसी रवानी गुज़री है मुझपे
कि ग़ज़लें लिख लेती हूँ।

मैं कहती रही हूँ,
एक संदूक ले कर क़ैद कर लो मुझे...
ग़म को मेरी ख़बर न होने पाए।
मैं फिर भी ग़ज़लें लिखूँगी...
मेरा होना भारी है मुझपे।।

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30 SEP 2019 AT 17:37

onto breaths while looking down from the 20 storey skyscraper, careful not to waste too much of them thinking that there might be only a few left, and then realise they are not falling after all. So they breathe heavily, once and let go. I let go my poems into this world like this, gradually, with a sigh of relief.

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20 SEP 2019 AT 9:55

हुए बरस के अब उन-सी मुहब्बत कहाँ,
जन्नत-ए-सुक़ून के बाद
अब जहाँ में दिल को आराम कहाँ?

उसका होना था फ़तह मेरी,
उसके न होने पर
अब यह जंग क्या और यह रक़ाबत क्या?

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17 SEP 2019 AT 10:10

रूह ने लेकर रेशा-रेशा,
सीया है जिस्म के वजूद को...
कौन कहता है आइना हैं नैन तेरे?
उनमें तो ज़ाहिर है चंचल पानी,
तू मन में मगर लिए है असीम गहराई...

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10 SEP 2019 AT 0:51

एक अर्सा बीता के ख़ुद से नज़रें मिलाई हैं,
तेरे इश्क़ की ऐसी भी ख़राबियाँ चलीं हैं मुझ पर...

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